Wednesday, August 31, 2011

दुसरी आजादी सब जीते पर जनता हारी

28 अगस्त दो प्यारी सी छोटी बच्चीयो इकरा और सिमरन के हाथो अन्ना ने नारियल पानी पीया. उनके साथियों को जोश आया माईक पकड़ा और दहाड़ लगाई हमने आधी लड़ाई जीत ली. बस यही बात मुझे समझ नहीं आयी किसी को भी पता हो तो मुझे भी बता दे केसे? क्या कानून बन गया? क्या जूस पीते ही करप्शन आधा खत्म हो गया? क्या करप्शन से जनता को निजात मिल गई? सारी समस्याए तो ज्यों के त्यों हैं? एक कहावत है कि जब तक जाहिल हैं तब तक हुनरमंदों की रोटी चलती रहेगी। यह कहावत एक बार फिर इस रूप में चरित्रार्थ हुई है कि जब तक तथाकथित सिविल सोसाइटी है तब तक अन्ना, केजरीवाल, भूषण, मनीष सिसौदिया और किरन बेदी की दुकान चलती रहेगी। तेरह दिन चले अनशन ड्रामा के बाद दिल्ली के रामलीला मैदान  और इंडिया गेट में सिविल सोसाइटी के चले जश्न के बीच लोग इस बात को भूल गए कि इस तमाशे में सरकार भी जीती, विपक्ष भी जीता, अन्ना और उनकी टीम भी जीते लेकिन हारी सिर्फ और सिर्फ इस देश की मजबूर जनता। याद होगा अरविन्द केजरीवाल ने रामलीला मैदान से हुंकार भरी थी कि सरकार अपना कमजोर बिल वापस ले और उनका ‘जन लोकपाल’ बिल पेश करे। सरकार ने न तो अपना बिल वापस लिया और न उनका जनलोकपाल बिल पेश किया। बल्कि जो हुआ ठीक अन्ना टीम की मांगो के विपरीत।

इसमें कोई दो राय नहीं कि एक अच्छे व्यक्ति के नाते हम सब अन्ना हजारे की इज्जत करते हैं पर जो कहा जा रहा है वो कितना सही है यह आज सबसे बड़ा सवाल है। अब तक सिर्फ तीन मांग संसद में पेश हुई हैं। कानून में शामिल नहीं हुई तो फिर कैसे अन्ना टीम और देश ने आधी लड़ाई जीती?  हमें तो लगता है जनता फिर ठगी गई। दूसरों को नहीं लगता तो आने वाला समय बता देगा।  अन्ना ने अनशन क्यों किया था? जनलोकपाल बिल के लिए जो उनकी टीम ने ड्राफ्ट किया था। कहा था-इसे तीस अगस्त तक पास नहीं किया तो..... क्या पास हुआ? क्या स्थाई समिती में केवल अन्ना टीम का ही ड्राफ्ट गया ? फिर बोले-मेरी ये तीन बातें ही शामिल कर लो- उस पर संसद में सिर्फ और सिर्फ चर्चा हुही है और उस चर्चा के निष्कर्ष को स्थायी समिती के पास विचार हेतु भेजा गया है, कानून तो नहीं बना। जनता अन्ना की जिद के लिए तो नहीं गई थी। वो गई थी करप्शन और महंगाई से परेशान होकर। मिला क्या? क्या संसद को झुकाना ही मकसद था? क्या संसद को अपनी ताकत दिखाना ही मकसद था? फिलहाल वो आधी लड़ाई जीतने पर पूरा जश्न मना रहे हैं। दोस्त ये बोलकर, एक शुरुआत हूही है और देश अब जाग गया है कहकर हमारा मुंह बंद कर रहे हैं। कह रहे हैं चुप रहो। सब उधर जा रहे हैं तुम्हें क्या एतराज है? नहीं एतराज तो कुछ नहीं। पर ये तो बताये की किस चीज की शुरुआत हो गयी है और कौन लोग जाग गए और ये कैसे निर्दयी लोग है जिनको जगाने के लिए एक 74 साल के बुजुर्ग को भूखे बैठ कर अपने शरीर को कष्ट देना पड़ता है, और जागने से होने क्या वाला है?

15 अगस्त को वो कह रहे थे आजादी की दूसरी लड़ाई शुरू। 28 अगस्त को कह रहे हैं कि आधी लड़ाई हमने जीत ली।  क्या 13 दिन में उनके अनशन से आधे संकट इस देश और इस जनता के खत्म हो गए। अगर ऐसा है तो फिर 13 दिन उन्हें अनशन पर लगे हाथ और बैठ ही जाना चाहिए था ताकि सारे रोग सारी समस्याए ही खत्म हो जाती। आधी नहीं पूरी लड़ाई फतह हो जाती । ये देश फिर सोने की चिड़िया बन जाता। 12 दिन के अनशन का उन पर वेसे भी कोई खास असर दिखा नहीं, सिवाए 7 वे दिन के जब उनके डाक्टरों के मुताबिक तबीय काफी बिगड़ गयी थी। 12 वे दिन भी ,जो जोश उनमे दिख रहा था उससे साफ़ था और 13 दिन तो वो आराम से झेल ही जाते। क्योंकी अन्ना जी ने अपनी उर्जा लालू प्रशाद यादव की तरह गृहस्त जीवन में तो बर्बाद की नहीं इसलिए देश के लिए,गांधी के लिए, जनता के लिए वो और 13 दिन आराम से बैठ ही सकते थे। कम से कम ये देश पूरा आजाद तो होता। उनकी नजर में अब तो हम आधे गुलाम हैं। अहम् सवाल यह है कि देश के नवजवान वर्ग को ये झूठे सब्जबाग दिखाए गये थे और प्रचारित किया गया था कि ये आज़ादी की दूसरी लड़ाई है। आजादी की पहली लड़ाई के बाद तो देश को विदेशी शासन से आजादी मिली थी लेकिन इस तथाकथित दूसरी लड़ाई से हासिल क्या हुहा? क्या देश को दूसरी आजादी मिल गयी? क्या आजादी की पूरी लड़ाई मुकम्मल हो गयी? क्या इस तरह सीधे सीधे नौजवानों और देश की भावनाओं के साथ अन्ना टीम ने छल नहीं किया है ???

करप्शन असली मुद्दा बना। सारी दुनिया ने देखा। हम मानते हैं पर ये रोग केवल और केवल अन्ना टीम के एक बिल से दूर हो जाएगा? बीमारी की अगर  तह तक नहीं जाओगे तो मरीज कैसे स्वस्थ होगा? असली बीमारी कहां है? अगर जमीनी और आम आदमी की बात की जाए तो करप्शन के जितने रास्ते सब जानते हैं उसके अलावा एक सबसे बड़ा रास्ता और है और वो है आम आदमी या गरीब आदमी सहूलियत खोजता है। वो चार घंटे लाइन में लगना पसंद नहीं करता। चार दिन किसी काम के पूरा होने का इंतजार नहीं करता। सही प्रक्रिया के तहत काम कराना इसलिए नहीं चाहता कहीं उसे थोड़े शारीरिक कष्ट ना उठाने पड़ें। वो हाथ में नोट लेकर निकलता है और काम करने वाले के मुहं खोलने से पहले ही वो हथेली खोल देता है। मोल दे देता है। इसे कैसे अन्ना और उनकी टीम ठीक करेगी? इस देश में कितने आयोग हैं? क्या कोई बता सकते है? कितने कानून बन चुके हैं लागू हों चुके हैं। उनके बनने और लागू होने से ज्यादा जरूरी है उन्हें बदलना जिनके लिए वो बने हैं। वहां झूठ का बोलबाला है और रिश्वत लेने वालों को कहा जाता है कि उनका मुंह काला है। जनता के चरित्र को सुधारने की जरूरत है अन्ना जी। सबको अपने जैसा बना दीजिए फिर किस बिल की जरूरत पड़ेगी। मैं अन्ना-तुम अन्ना-वो अन्ना फला अन्ना । क्या टोपी पहनने और बोलने से सारे अन्ना हो गए? खेर देश को कुछ मिले या न मिले देश की जनता के सपने पूरे हो या न हो अन्ना को दुसरे गाँधी का ख़िताब मिल गया और वो सड़क से मेदानता तक पहूच गए ये कम उपलब्धी नहीं है अन्ना की.

Sunday, August 28, 2011

रात को दिन कैसे कह दूं.....?


वास्तविक मदारी (सरकार) ...का डमरू (मीडिया) जो कुछ दिनों के लिए नौसिखिये मदारियों(टीम अन्ना ) को उधार दिया गया था आज अपने सही मदारी के वापस आ गया. और देश की जनता को जीत के झूठे गीत सुनाने में व्यस्त हो गया है. नौसिखिये मदारियों ने भी इसके सुर में सुर मिलाने में ही भलाई समझी और जैसे तैसे अपनी जान बचाई है. आप स्वयम विचार करिए ज़रा देखे अन्ना टीम द्वारा 16 अगस्त का अनशन जिन मांगों को लेकर किया गया था. उन मांगों पर आज हुए समझौते में कौन हारा कौन जीता इसका फैसला करिए

पहली मांग थी : सरकार अपना कमजोर बिल वापस ले.
नतीजा : सरकार ने बिल वापस नहीं लिया.

दूसरी मांग थी : सरकार लोकपाल बिल के दायरे में प्रधान मंत्री को लाये.
नतीजा : सरकार ने आज ऐसा कोई वायदा तक नहीं किया. अन्ना को दिए गए समझौते के पत्र में भी इसका कोई जिक्र तक नहीं.

तीसरी मांग थी : लोकपाल के दायरे में सांसद भी हों :
नतीजा : सरकार ने आज ऐसा कोई वायदा तक नहीं किया. अन्ना को दिए गए समझौते के पत्र में भी इसका कोई जिक्र नहीं.

चौथी मांग थी : तीस अगस्त तक बिल संसद में पास हो.
नतीजा : तीस अगस्त तो दूर सरकार ने कोई समय सीमा तक नहीं तय की कि वह बिल कब तक पास करवाएगी.

पांचवीं मांग थी : बिल को स्टैंडिंग कमेटी में नहीं भेजा जाए.
नतीजा : स्टैंडिंग कमिटी के पास एक के बजाय पांच बिल भेजे गए हैं.

छठी मांग थी : लोकपाल की नियुक्ति कमेटी में सरकारी हस्तक्षेप न्यूनतम हो.
नतीजा : सरकार ने आज ऐसा कोई वायदा तक नहीं किया. अन्ना को दिए गए समझौते के पत्र में भी इसका कोई जिक्र तक नहीं.

सातवीं मांग : जनलोकपाल बिल पर संसद में चर्चा नियम 84 के तहत करा कर उसके पक्ष और विपक्ष में बाकायदा वोटिंग करायी जाए. नतीजा : चर्चा 184 के तहत नहीं हुई, ना ही वोटिंग हुई.

उपरोक्त के अतिरिक्त तीन अन्य वह मांगें जिनका जिक्र सरकार ने अन्ना को आज दिए गए समझौते के पत्र में किया है वह हैं.

(1)सिटिज़न चार्टर लागू करना,

(2)निचले तबके के सरकारी कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे में लाना,

(3)राज्यों में लोकायुक्तों कि नियुक्ति करना.


प्रणब मुखर्जी द्वारा इस संदर्भ में बहश के बाद संसद में दिए गए बयान(जिसे भांड न्यूज चैनल प्रस्ताव कह रहे हैं ) में स्पष्ट कहा गया कि इन तीनों मांगों के सन्दर्भ में सदन के सदस्यों की भावनाओं से अवगत कराते हुए लोकपाल बिल में संविधान कि सीमाओं के अंदर इन तीन मांगों को शामिल करने पर विचार हेतु आप (लोकसभा अध्यक्ष) इसे स्टैंडिंग कमेटी के पास भेजें.

आइये अब 16 अगस्त से पीछे की और चलते हैं :

1. शीला शिक्षित की कुर्सी खतरे में पड़ी हुई थी, अजय माकन जी सबसे आगे थे मुख्यमंत्री बनने की दौड़ में

2. मनमोहन सिंह और "छि:-बे-दम-बरम" का नाम कनिमोझी द्वारा सार्वजनिक कर दिया गया था,

3. गत 24 अगस्त को हुई पेशी में कनिमोझी ने साफ़ साफ़ कहा की मनमोहन सिंह और चिदंबरम ने ही Auction प्रक्रिया रुकवाई थी,

4. महंगाई के ऊपर जोरदार बहस चल थी थी, हालांकि महंगाई के मुद्दे पर जो वोटिंग हुई वो किसी काम की न रही

5. 2G और राष्ट्र्मंडल खेलों के घोटालों के ऊपर भी संसद में जोरदार बवाल मचा हुआ था और कांग्रेस चारों खाने चित्त नजर आ रही थी

कौन जीता..? कैसी जीत...? किसकी जीत...?

देश 8 अप्रैल को जहां खड़ा था आज टीम अन्ना द्वारा किये गए कुटिल और कायर समझौते ने देश को उसी बिंदु पर लाकर खड़ा कर दिया है. जनता के विश्वास की सनसनीखेज सरेआम लूट को विजय के शर्मनाक शातिर नारों की आड़ में छुपाया जा रहा है. फैसला आप करें. मेरा तो सिर्फ यही कहना है कि रात को दिन कैसे कह दूं.....?????

और अंत में एक महान उपलब्धी.... अनशन के समस्त दिनों में कहीं भी मसखरा दिग्विजय सिंह नहीं दिखाई दिया, और ना ही कुटिल सिब्बल की... कुटिल मुस्कान ही दिखाई दी l  अब सब सामने आ जायेंगे, क्योंकि इन सबकी मोम भी अमेरिका से वापिस आने वाली है.


Wednesday, August 24, 2011

क्या टीम अन्ना इस देश को बताएगी कि.....???

न्यूज चैनलों की भारी-भरकम बैंड पार्टियों की जोरदार गूँज से सजी "लोकपाली" बरात आज अपने गन्तव्य तक पहुँच जायेगी. फिलहाल यही संकेत मिल रहे है. वैसे बारातें कभी समय से नहीं पहुँचती इसलिए थोड़ी-बहुत देर भी सम्भव है. NDTV और IBN7  सरीखे "सत्यनिष्ठ" "निष्पक्ष" तथा घनघोर "कांग्रेस विरोधी" , विशेष रूप से "सोनिया-राहुल विरोधी" चैनलों ने भी कल रात से ये बताना शुरू कर दिया है कि टीम अन्ना कि मांगो को मनवाने में सोनिया द्वारा प्रधानमंत्री को भेजे गए "आदेश" और राहुल गांधी "जी" द्वारा दी गयी सलाह ने ही इस समझौते की शरुआत में मुख्य भूमिका निभायी है. 

ज्ञात रहे कि कल रात ही में टीम अन्ना ये कह चुकी है कि सरकार के साथ जिन 6 मुद्दों पर उसका मतभेद था उनमे से तीन मुद्दों पर सरकार ने टीम अन्ना की बातें मान ली है और बाकी की तीन बातें भी "थोड़ी" कांट -छांट के बाद आज मान लिए जाने की संभावना है. फिलहाल उन 6 मुद्दों , उनको लेकर हुए समझौते पर, इन संभावनाओं के पूरा होने तक कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता. लेकिन हाँ जिन पर कोई विवाद नहीं उस पर कुछ कहना जरूर चाहता हूँ....... 

ज़रा ध्यान दीजिये कि 16 अगस्त को अनशन शुरू होने के पहले से ही टीम अन्ना ये कह रही थी कि सरकार ने जो लोकपाल बिल बनाया है वो "टॉयलेट पेपर" की तरह है. रद्दी की टोकरी में फेंक देने लायक है. उस लोकपाल से भ्रष्टाचार घटने के बजाय बढ़ेगा, ऐसे न जाने कितने आरोप लगाते हुए टीम अन्ना ने सरकार के उस लोकपाल को "जोकपाल" की ही उपमा दे डाली. टीम अन्ना का ये प्रचार मीडिया के अंध समर्थन के कन्धों पर खूब उछला. विपक्षी दलों ने भी बहती गंगा में जमकर हाथ धोते हुए "जन लोकपाल" की तुलना में सरकारी लोकपाल को लिजलिजा-पिलपिला और ना जाने क्या-क्या कह डाला, विपक्षियो के ऐसे किसी भी बयान पर टीम अन्ना के नथुने और सीने तो फूले हुए दिखते ही रहे, न्यूज चैनलों ने भी इसी सुर में सुर मिलाया. कुल मिलाकर देश में एक जबर्दस्त माहौल बना कि सरकार के लोकपाल से किसी का कोई भला नहीं होने वाला. इस पूरे घटनाक्रम को सारे देश ने देखा और सुना है.

मैं अब कुछ और भी याद दिलाना चाहूँगा. सरकारी लोकपाल का मसविदा सार्वजानिक होने के बाद से ही इसी टीम अन्ना ने मीडिया में यह भी कहना शुरू किया था कि हमारे जन लोकपाल के कुल 40 प्रावधानों में से सरकार ने 34 प्रावधानों को सरकारी लोकपाल में शामिल कर लिया है, केवल 6 प्रावधानों पर हमारा मतभेद है. टीम अन्ना के इस दावे की पुष्टि सरकार ने भी सार्वजनिक रूप से की थी. यानी कि खुद टीम अन्ना के अनुसार सरकार ने उसके जन लोकपाल बिल के 85% प्रावधानों को मान लिया था. 15% प्रावधानों को नही माना था. अर्थात "टॉयलेट पेपर" और "रद्दी कि टोकरी में फेंक दिए जाने लायक" (खुद टीम अन्ना के ही अनुसार) उन 34 प्रावधानों पर दोनों पक्ष एक दूसरे से सहमत थे....!!!!!!!!  आश्चर्यजनक के साथ ही साथ हास्यास्पद तथ्य यह भी  है कि वे 34 प्रावधान खुद टीम अन्ना द्वारा ही रचे-गढ़े गए थे.....!!!!!!! यानी कि जिस "जन लोकपाल" के द्वारा देश की तकदीर बदलने, देश को दूसरी आज़ादी दिलवाने का दावा जो टीम अन्ना पिछले 5 महीनों से कर रही है खुद उसी टीम अन्ना के अनुसार उस "जन लोकपाल" बिल के 85% प्रावधान "टॉयलेट पेपर" और "रद्दी की टोकरी में फेंक देने" के समान हैं.अतः   

(1) क्या टीम अन्ना इस देश को बताएगी कि उसने कुल 40 प्रावधानों वाले अपने जन लोकपाल बिल में "टॉयलेट पेपर" और "रद्दी कि टोकरी में फेंक दिए जाने लायक"  34 प्रावधानों को क्यों शामिल किया था.

(2) क्या टीम अन्ना इस देश को बताएगी कि उसने कुल 40 प्रावधानों वाले अपने जन लोकपाल बिल में "टॉयलेट पेपर" और "रद्दी कि टोकरी में फेंक दिए जाने लायक"  34 प्रावधानों से देश की जनता का क्या और कैसा भला करने की सोची थी...?

(3) क्या टीम अन्ना इस देश को बताएगी कि उसने कुल 40 प्रावधानों वाले अपने जन लोकपाल बिल में "टॉयलेट पेपर" और "रद्दी कि टोकरी में फेंक दिए जाने लायक"  34 प्रावधान किस मूर्ख या धूर्त व्यक्ति की सलाह और बुद्धिमत्ता के सहारे बनाये थे.

(4) क्या टीम अन्ना इस देश को बताएगी कि उसने कुल 40 प्रावधानों वाले अपने जन लोकपाल बिल में "टॉयलेट पेपर" और "रद्दी कि टोकरी में फेंक दिए जाने लायक"  34 प्रावधानों को किस मजबूरी में शामिल किया था.

(5) क्या टीम अन्ना इस देश को बताएगी कि उसने कुल 40 प्रावधानों वाले अपने जन लोकपाल बिल में "टॉयलेट पेपर" और "रद्दी कि टोकरी में फेंक दिए जाने लायक"  34 प्रावधानों को किसकी आँखों में धूल झोंकने के लिए तैयार किया था...?

(6) क्या टीम अन्ना इस देश को बताएगी कि उसने कुल 40 प्रावधानों वाले अपने जन लोकपाल बिल में "टॉयलेट पेपर" और "रद्दी कि टोकरी में फेंक दिए जाने लायक"  34 प्रावधानों पर सरकार से अपनी सहमति क्यों जतायी थी.?

स्पष्ट कर दूं की भ्रष्टततम  सरकार के लोकपाल बिल और इन सफेदपोशों के जन लोकपाल बिल की नूरा कुश्ती का काला सच सामने ला रहे हैं ये सवाल.  मेरे विचार से ये सवाल सारी नूरा कुश्ती की कहानी स्वयम कह रहे हैं. लेकिन इस कहानी का क्लाइमेक्स अभी बाक़ी है, ज़रा उन 6 मुद्दों पर भी फैसला होने दीजिये........

(मूल लेखक सतीश चन्द्र मिश्रा )

इन सुझावों को भी जनलोकपाल में शामिल करे

जो लोग आज अन्ना की आंधी में अंधे नहीं हुहे है उनसे निवेदन है कि, एक जिम्मेदार नागरिक का फर्ज अदा करते हुहे असंवेधानिक रूप से दबाब बनाकर जो जनलोकपाल बिल पास करवाने का प्रयास हो रहा है उसको मजबूत बनवाने के लिए सरकार के पास सुझाव दे जो की बहुत जरुरी है जिसे अन्ना टीम ने बड़ी सफाई से बिल से दूर रखा हुहा है.

सुझाव नम्बर 1. NGOs और कॉर्पोरेट छेत्र को भी शामिल किया जाए|

सुझाव नम्बर २. Right to Recall (Corrupt) Lokpal or Jan Lokpal को वापस बुलाने का अधिकार जो की सरकारी और जनलोकपाल दोनों में नहीं है.
इन दोनों सुझावों को जल्द से जल्द स्पीड पोस्ट, फेक्स या किसी भी रूप में सरकार और देश तक पौह्चाये, में अग्रीम धन्यवाद के साथ आपका अत्यंत आभारी रहूगा|


Friday, August 19, 2011

अन्ना टीम खुद को लोकपाल के दायरे में लाने से क्यों भाग रही है?

रामलीला मैदान में अभी-अभी खत्म हुई प्रेस कांफ्रेंस में अरविन्द केजरीवाल और प्रशांत भूषण ने साफ़ और स्पष्ट जवाब देते हुए लोकपाल बिल के दायरे में NGO को भी शामिल किये जाने की मांग को सिरे से खारिज कर दिया है. विशेषकर जो NGO सरकार से पैसा नहीं लेते हैं उनको किसी भी कीमत में शामिल नहीं करने का एलान भी किया. ग्राम प्रधान से लेकर देश के प्रधान तक सभी को लोकपाल बिल के दायरे में लाने की जबरदस्ती और जिद्द पर अड़ी अन्ना टीम NGO को इस दायरे में लाने के खिलाफ शायद इसलिए है, क्योंकि अरविन्द केजरीवाल, मनीष सिसोदिया,किरण बेदी, संदीप पाण्डेय ,अखिल गोगोई और खुद अन्ना हजारे भी केवल NGO ही चलाते हैं. अन्ना के सबसे ज्यादा प्यारे अग्निवेश(कांग्रेस और आईएसआई के दलाल) भी 3-4 NGO ही चलाने का ही धंधा करता हैऔर इन सबके NGO को देश कि जनता की गरीबी के नाम पर करोड़ो रुपये का चंदा विदेशों से ही मिलता है. इन दिनों पूरे देश को ईमानदारी और पारदर्शिता का पाठ पढ़ा रही ये टीम अब लोकपाल बिल के दायरे में खुद आने से क्यों डर/भाग रही है.भाई वाह...!!! क्या गज़ब की ईमानदारी है...!!! इन दिनों अन्ना टीम की भक्ति में डूबी भीड़ के पास इस सवाल का कोई जवाब है क्या.....???

जहां तक सवाल है सरकार से सहायता प्राप्त और नहीं प्राप्त NGO का तो बताना चाहूंगा कि, भारत सरकार के Ministry of Home Affairs के Foreigners Division की FCRA Wing के दस्तावेजों के अनुसार वित्तीय वर्ष 2008-09 तक देश में कार्यरत ऐसे NGO's की संख्या 20088 थी, जिन्हें विदेशी सहायता प्राप्त करने की अनुमति भारत सरकार द्वारा प्रदान की जा चुकी थी.इन्हीं दस्तावेजों के अनुसार वित्तीय वर्ष 2006-07, 2007-08, 2008-09 के दौरान इन NGO's को विदेशी सहायता के रुप में 31473.56 करोड़ रुपये प्राप्त हुये. इसके अतिरिक्त देश में लगभग 33 लाख NGO's कार्यरत है.इनमें से अधिकांश NGO भ्रष्ट राजनेताओं, भ्रष्ट नौकरशाहों, भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों, भ्रष्ट सरकारी कर्मचारियों के परिजनों,परिचितों और उनके दलालों के है. केन्द्र सरकार के विभिन्न विभागों के अतिरिक्त देश के सभी राज्यों की सरकारों द्वारा जन कल्याण हेतु इन NGO's को आर्थिक मदद दी जाती है.एक अनुमान के अनुसार इन NGO's को प्रतिवर्ष न्यूनतम लगभग 50,000.00 करोड़ रुपये  देशी विदेशी सहायता के रुप में प्राप्त होते हैं. इसका सीधा मतलब यह है की पिछले एक दशक में इन NGO's को 5-6 लाख करोड़ की आर्थिक मदद मिली. ताज्जुब की बात यह है की इतनी बड़ी रकम कब.? कहा.? कैसे.? और किस पर.? खर्च कर दी गई.  इसकी कोई जानकारी उस जनता को नहीं दी जाती जिसके कल्याण के लिये, जिसके उत्थान के लिये विदेशी संस्थानों और देश की सरकारों द्वारा इन NGO's को आर्थिक मदद दी जाती है. इसका विवरण केवल भ्रष्ट NGO संचालकों, भ्रष्ट नेताओ, भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों, भ्रष्ट बाबुओं, की जेबों तक सिमट कर रह जाता है. भौतिक रूप से इस रकम का इस्तेमाल कहीं नज़र नहीं आता. NGO's को मिलने वाली इतनी बड़ी सहायता राशि की प्राप्ति एवं उसके उपयोग की प्रक्रिया बिल्कुल भी पारदर्शी नही है. देश के गरीबों, मजबूरों, मजदूरों, शोषितों, दलितों, अनाथ बच्चो के उत्थान के नाम पर विदेशी संस्थानों और  देश में केन्द्र एवं राज्य सरकारों के विभिन्न सरकारी विभागों से जनता की गाढ़ी कमाई के  दसियों हज़ार करोड़ रुपये प्रतिवर्ष लूट लेने वाले NGO's की कोई जवाबदेही तय नहीं है. उनके द्वारा जनता के नाम पर जनता की गाढ़ी कमाई के भयंकर दुरुपयोग की चौकसी एवं जांच पड़ताल तथा उन्हें कठोर दंड दिए जाने का कोई विशेष प्रावधान नहीं है. लोकपाल बिल कमेटी में शामिल सिविल सोसायटी के उन सदस्यों ने जो खुद को सबसे बड़ा ईमानदार कहते हैं और जो स्वयम तथा उनके साथ देशभर में India Against Corruption की मुहिम चलाने वाले उनके अधिकांश साथी सहयोगी NGO's भी चलाते है लेकिन उन्होंने आजतक जनता के नाम पर जनता की गाढ़ी कमाई के दसियों हज़ार करोड़ रुपये प्रतिवर्ष लूट लेने वाले NGO's के खिलाफ आश्चार्यजनक रूप से एक शब्द नहीं बोला है, NGO's को लोकपाल बिल के दायरे में लाने की बात तक नहीं की है. 

इसलिए यह आवश्यक है की NGO's को विदेशी संस्थानों और देश में केन्द्र एवं राज्य सरकारों के विभिन्न सरकारी विभागों से मिलने वाली आर्थिक सहायता को प्रस्तावित लोकपाल बिल  के दायरे में लाया जाए. (कृपया इस पोस्ट को जितने ज्यादा लोगों तक पहुंचा सकते हों उतने ज्यादा लोगों तक पहुंचाइये.)

अन्ना हो या बाबा रामदेव भ्रस्टाचार के खिलाफ साथ दे

16 अगस्त 2011 की सुबह सरकारी पुलिस ने अन्ना हजारे को मयूर विहार से गिरफ्तार कर लोकतंत्र को जब सूली पर टांगा था तो जनलोकपाल से पूरी तरह न सहमत होते हुहे भी लोकतंत्र की रक्षा के लिए मै भी इन्टरनेट,फेसबुक,ट्वीटर छोड़कर सडको पर आया विरोध किया और देश की जीत के लिए प्रयास किया, और अन्ना के साथ रामलीला मैदान में भी जारी रहेगा |  अब जब ये तय हो गया की अन्ना जी का आगे का अनशन 19 अगस्त 2011 से रामलीला मैदान में 2 सितम्बर तक होगा| अब ये सोचने का वक़्त आ गया है कि,क्या वाकई सरकार अन्ना के सामने झुक गई है ? और अगर ऐसी बात है तो फ़िर अनशन किसलिये हो रहा है? सरकार अन्ना के जन लोकपाल को स्वीकार क्यो नही करती?  15 दिन के बाद क्या होगा? क्या 15 दिन के बाद सरकार मान जायेगी? अगर सरकार 15 दिन के बाद उनकी बात मान सकती है तो अब क्यो नही मान लेती? पूरा देश अन्ना जी के आमरण अनशन के पीछे पड़ा है किन्तु अनशन के कारण को अनशन के पूर्व समाप्त कर अन्ना जी को अनशन करनें से कोई क्यों नहीं रोकना चाहता 


एक बात यह भी देखिये की, आज सरकार और सरकारी पुलिस उसी रामलीला मैदान के लिये राजी हो गयी है जहां स्वामी रामदेव जी अनशन कर रहे थे बिना किसी वजह 4 जून की रात महीलाओ बच्चो को आशू गेस के गोलों और लाठियों से कूटा गया कुचला गया जबकी उनके पास इजाजत थी | सरकार और पुलिस का यह दोगला व्यवहार क्यो ? ध्यान दे कि, कही हम इस जनलोकपाल के चक्कर में कालेधन का मुद्दा और कांग्रेस के घोटाले वाले कारनामे भूल न जाये। देश में इतनी महंगाई है, लेकिन इस मुद्दे पर लोग आंदोलित न हों। दूसरा बड़ा मुद्दा देश का अरबो रुपया कालाधन विदेशों में है, जिसे बाबा रामदेव ने वापस लाने के लिए बीड़ा उठाया, लेकिन कांग्रेस नहीं चाहती थी कि, इस पर लोग एकजुट हों, इसलिए उसने उस आंदोलन के साथ बलात्कार किया और रामदेव को दिल्ली से निकाल दिया वो भी बिना किसी अपराध के। इस समय संसद का सत्र चल रहा है, वहां क्या मुद्दे उठाए जा रहे हैं, इस बात की जानकारी मीडिया में आ ही नहीं पा रही है, क्योंकि अखबारों और मीडिया को तो अन्ना से ही फुर्सत नहीं मिल रही, जो वह किसी और खबर को जगह दे। जहां तक जनलोकपाल बिल के प्रावधानों का सवाल है, यदि सरकार अन्ना की सारी बातें और शर्तें मान भी लेती है तो भी नौकरशाह उसमें इतनी रास्ते छोड़ देंगे कि आसानी से बचा जा सके। संसदीय इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं, जब विपक्ष ने अनेक दिनों तक संसद को ठप्प कर मुद्दा-विपक्ष पर जेपीसी की मांग मनवाई और उसकी जांच हुई, लेकिन कोई भी ऐसा उदाहरण नहीं है जिसमें किसी भी जिम्मेदार पर कोई सार्थक कार्यवाही हुई हो| 


आम गरीब आदमी जो भ्रस्टाचार से त्रस्त है, आम गरीब किसान जो आत्महत्या करने के कगार पर आ चुका है, वह जन लोकपाल के पास जाकर शिकायत कर पायेगा या उसकी भुखमरी और बेरोजगारी मिट जायेगी। लोकायुक्त पहले भी नियुक्त किये जा चुके है और भ्रष्ट्राचार निवारण एजन्सीयां बनी हुई है। कोई उनके पास शिकायत करने नही जाता। यही हाल जन लोकपाल के साथ होगा। जन लोकपाल में तो प्रावधान भी है अगर शिकायत झूठी साबित हुही जिसकी सम्भावना 90% रहेगी तो शिकायत करता को सजा और भारी जुरमाना दोनों देना होगा। जब तक सम्पुर्ण व्यवस्था परिवर्तन के लिये आंदोलन नही होता और उसमे सफ़लता नही मिलती तब तक सत्ता पर बैठे हुए भेडिये जनता का यू ही खून चूसते रहेंगे। मेरा मानना है की कानून बनाने से नहीं लोगो को जागरूक करने से ही भ्रस्टाचार समाप्त हो सकता है! पहले जो भ्रस्ट है उन्हें तो हटाओ, भ्रस्ट लोगो के हाथ मे ही नए लोगो को चुनने का अधिकार होता है तो वो अच्छे लोगो को क्यों चुनेगा! भ्रस्ताचारियो को हटाओ भ्रस्टाचार खुद समाप्त हो जायेगा! इस दृष्टि से स्वामी रामदेव जी का लक्ष्य और आंदोलन ज्यादा कारगर है । हमे ''भारत ''चाहिये,'' इण्डिया'' नही, वास्तव मे जो गांवों मे बसता है।

Sunday, August 14, 2011

१६ अगस्त 2011 से होने वाला नाटक "झुनझुना चाहिए"

16 अगस्त , 2011 . सुबह 10 बजे ..... हर चैनल की पहेली लाइन....."गांधीवादी" अन्ना हजारे जी बने देश की आवाज़....देश का बच्चा बच्चा कह रहा है...की हमे जनलोकपाल दे दो...(रोटी बाद में दे देना..पहेले जनलोकपाल दे दो)

दोपहर में....अन्ना के साथ पूरा देश

शाम को....अनशन को ८ घंटे ......"गांधीवादी" अन्ना के साथ देश का हर युवक ......
...सब ने कहा हम गाँधी "जी" के रास्ते पर चलेंगे.....

रात ११ बजे.....पूरा देश अन्ना के साथ देश भक्ति गीतों पर झूम रहा है...( ये न्यूज़ सिर्फ इस लिए क्यों की.....सुषमा जी का देश भक्ति गीतों पर झूमना.....नाचना है....और बाकी सबका झूमना....देश के लिए आवाज़ उठाना)

(अब रात हो गयी.....ये बाबा रामदेव का अनशन नहीं है..इस लिए पुलिसे यहाँ अन्ना के अनशन को सुरक्षा दे रही है ...क्यों की बड़ी मम्मी ने कहा है...USA से जहा वो पैसे ठिकाने लगाने गयी है)

सुबह ९ बजे...........अनशन को हुए ...२४ घंटे और ."गांधीवादी" अन्ना जी अभी भी अनशन पर....वो अपनी बात से नहीं हटेंगे ........चाहे जान चली जाए

( जान किस की चली जाए------- देश के हर गरीब की जिसको जनलोकपाल नाम का झुनझुना पकडाया जायेगा)

अबदिन भर के लिए नौकरी मिल गयी है......बुद्दिज़ीबी लोगो को अपनी राय देने के लिए
वो बुद्दिज़ीबी लोग है......वो सारे लोग जो...जिन्होंने देश को तोड़ने में PHD की हो....जैसे अग्निवेश , तीस्ता सीतलवाड...अरुंधती राय और मल्लिका साराभाई

रात को JNU से आये...नक्सली लोगो का इंटरव्यू भी होगा वहा.....आखिर उन्होंने भी पुरे दिन अपने थैलों में पत्थर भर के रखे थे......अग्निवेश को बुरा बोलने वालो के लिए

अब फिर रात और पुलिसे की गार्ड वाली नौकरी शुरू.....(क्यों की भाई.....हर जगह सही लोगो का डर रहता है....जिसे आज कल.....आर एस एस और बाबा रामदेव के नाम से ही जाना जाता है ....)

अब तीसरा दिन.18 अगस्त 2011.....मीडिया वो ही पुरानी क्लिप्स से काम चला लेगा........और बार बार कहेगा....सरकार से बात चल रही है...........अन्ना जी झुकेंगे नहीं....और .बुद्दिज़ीबी लोगो को अपनी राय देने के लिए बार बार बुलाएगा....

तभी खबर आएगी.....
सब शादी के लिए तैयार है......मन्नू भैया (गुलाम मनमोहनसिंह) ने अमेरिका से आये निर्देश के बाद हाँ कर दी है और कपिल सिबल शगुन का जूस ले कर आ रहे है...............

और इसी शादी में नाचने लगेगा...देश का हर एक वो इंसान ...जिसको झुनझुना चहिये था

तभी पीछे से आवाज़ आएगी...अरे तीन दिन हो गए......आज तो सब्जी ले आओ..बाज़ार से या वो भी तुम्हारा जनलोकपाल लाएगा

तभी आम आदमी थैला लेगा..और जाएगा..हस्ते हुए...और भाव सुन कर आएगा...सिर्फ और सिर्फ ....आलू लेकर..........और मुस्कराए हुए सोचेगा..की कभी कोई जनलोकपाल आये गा.....और सब्जी भी सस्ती कर जायेगा....( जो की अब सिर्फ मन्नू भैया की किताब और उनके सरकारी आकड़ो में ही कम होती है )

ये है.....१६ अगस्त 2011 से आने वाला नाटक----------"-झुनझुना चाहिए"

Thursday, August 11, 2011

सोनिया की सर्जरी संसद सत्र के दौरान ही क्यों?

ज़रा सोचिए आज जब सोनिया गाँधी अमेरिका इलाज़ कराने गयी हुही है तो संसद के इस सत्र मे जो कुछ होना चाहीए था उनको लेकर नही हो रहा है बहुत से सवाल सोनिया और राहुल से होते जो की अब नहीं हो रहे. सोनिया गाँधी ओर उनके सुपुत्र कांग्रेस के युवराज विदेश मे है सं...सद मे जो भी उनको लेकर मुद्दे उठते वो अब नही उठ रहे क्योंकी वो यहा है ही नही जबाब देने के लिए. आप विचार कीजिए जिस बीमारी का इलाज कराने वो अमेरिका गयी है क्या वो अचानक हुही है? अचानक होती तो पहले यही दिखया होगा मीडिया में तो कोई ऐसी खबर नहीं आयी चलिए दिखाया भी तो मीडिया से क्यो छुपाया? अगर अचानक नही थी तो जब संसद सत्र शुरू हुहा तब ही वो सर्जरी कराने विदेश क्यो भाग गयी. सर्जरी पहले भी कराई जा सकती थी संसद सत्र के टाइम ही क्यों? क्या उनके लिए संसद का कोई महत्व नहीं? अगर सर्जरी पहले करा लेती क्योंकी पिछले सत्र और अब के सत्र के बीच काफी समय था सर्जरी और आराम दोनों किये जा सकते थे और अब संसद सत्र मे रह सकती थी. संसद सत्र के दौरान सर्जरी करवाने का अर्थ है सत्र से भागना मुद्दों से भागना, क्या बात है मेडम 100% पावर 0% रेस्पोनसबिलिटी.

Tuesday, August 9, 2011

“मालिकों” के विदेश दौरे के बारे में जानने का, नोकारों को कोई हक़ नहीं

यह एक सामान्य सा लोकतांत्रिक नियम है कि जब कभी कोई लोकसभा या राज्यसभा सदस्य किसी विदेश दौरे पर जाते हैं तो उन्हें संसदीय कार्य मंत्रालय को या तो "सूचना" देनी होती है अथवा (कनिष्ठ सांसद जो मंत्री नहीं हैं उन्हें) "अनुमति" लेनी होती है।

इस वर्ष जून माह में जब बाबा रामदेव का आंदोलन उफ़ान पर था, उस समय सोनिया गाँधी अपने परिवार एवं विश्वस्त 11 अन्य साथियों के साथ लन्दन, इटली एवं स्विट्ज़रलैण्ड के प्रवास पर थीं (इस बारे में मीडिया में कई रिपोर्टें आ चुकी हैं)। काले धन एवं स्विस बैंक के मुद्दे पर जब सिविल सोसायटी द्वारा आंदोलन किया जा रहा था, तब "युवराज" लन्दन में अपना जन्मदिन मना रहे थे (Rahul Gandhi Celebrates Birthday in London)। सोनिया एवं राहुल के यह दोनों विदेशी दौरे मीडिया की निगाह में बराबर बने हुए थे (Sonia's Foreign Visit), परन्तु विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र(?) वाली भारत सरकार के लोकसभा सचिवालय को आधिकारिक रूप से इस बात की कोई जानकारी नहीं थी, कि देश की एक सबसे प्रमुख सांसद, NAC एवं UPA की अध्यक्षा तथा अमेठी के सांसद उर्फ़ युवराज "कहाँ" हैं?

यह बात "सूचना के अधिकार" कानून (Right to Information) के तहत माँगी गई एक जानकारी से निकलकर सामने आई है कि जून 2004 (अर्थात जब से UPA सत्ता में आया है तब) से "महारानी" एवं "युवराज" ने लोकसभा सचिवालय को अपनी विदेश यात्राओं के बारे में "सूचित" करना भी जरूरी नहीं समझा है (अनुमति लेना तो बहुत दूर की बात है)। (भला कोई "मालिक", अपने "नौकर" को यह बताने के लिए कैसे बाध्य हो सकता है, कि वह कहाँ जा रहा है… तो फ़िर महारानी और युवराज अपनी "प्रजा" को यह क्यों बताएं?)  जब इंडिया टुडे ने लोकसभा सचिवालय  के समक्ष RTI लगाकर सूचना चाही कि 14वीं लोकसभा के किन-किन सांसदों ने विदेश यात्राएं की हैं, तब सचिवालय ने "पवित्र परिवार"(?) को छोड़कर सभी सांसदों की विदेश यात्राओं के बारे में जानकारी उपलब्ध करवाई। लोकसभा सचिवालय के उप-सचिव हरीश चन्दर के अनुसार, सचिवालय सभी विदेश यात्राओं, साथ में जाने वाले प्रतिनिधिमण्डलों के अधिकारियों एवं पत्रकारों का पूरा ब्यौरा रखता है, प्रत्येक सांसद का यह कर्तव्य है कि वह अपनी विदेश यात्रा से पहले लोकसभा अध्यक्ष को सूचित करे…"।
इसके पश्चात इंडिया टुडे ने बाकायदा खासतौर पर अगले RTI आवेदन में 14वीं एवं 15वीं लोकसभा के सदस्यों के रूप में, "पवित्र परिवार" की विदेश यात्राओं के बारे में जानकारी चाही। 4 जुलाई 2011 को लोकसभा सचिवालय से जवाब आया, "रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं…"। (नौकर की क्या मजाल, कि वह मालिक से "नियम-कायदे" के बारे में पूछताछ करे या बताये?) इसी प्रकार का RTI आवेदन हिसार के रमेश कुमार ने लगाया था, जिन्हें पहले तो कोई सूचना ही नहीं दी गई… जब उसने केन्द्रीय सूचना आयुक्त (Central Information Commissioner) को "दूसरी अपील" की तब उस कार्यालय ने उस आवेदन को प्रधानमंत्री कार्यालय एवं संसदीय कार्य मंत्रालय को "फ़ारवर्ड" कर दिया। फ़िर पता नहीं कहाँ-कहाँ से घूमते-फ़िरते उस आवेदन का जवाब कैबिनेट सचिवालय की तरफ़ से श्री कुमार को 8 जुलाई 2011 को मिला कि उनके आवेदन को "राष्ट्रीय सलाहकार परिषद" (NAC) को भेज दिया गया है. NAC के कार्यालय से कहा गया कि उनके पास सोनिया गाँधी की विदेश यात्राओं के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं है…(यानी उनकी "किचन कैबिनेट" को भी नहीं पता??? घनघोर-घटाटोप आश्चर्य!!!)।

फ़िलहाल सोनिया गाँधी कैंसर के ऑपरेशन हेतु अमेरिका के एक अस्पताल में हैं, जहाँ कांग्रेस के खासुलखास नौकरशाह पुलक चटर्जी उनकी सुरक्षा एवं गोपनीयता का विशेष खयाल रखे हुए हैं। विदेशी मीडिया के "पप्पाराजियों" तथा भारतीय मीडिया के "बड़बोले" और "कथित खोजी" पत्रकारों को सोनिया गाँधी के आसपास बहने वाली हवा से भी दूर रखा गया है। हालांकि कोई भी सांसद (या मंत्री) अपनी निजी विदेश यात्राओं पर जाने के लिए स्वतन्त्र है (आम नागरिक की तरह) लेकिन चूंकि सांसद "जनता के सेवक"(??? क्या! सचमुच) हैं, इसलिए कम से कम उन्हें देश में आधिकारिक रूप से बताकर जाना चाहिए। किसी भी शासकीय सेवक से पूछ लीजिये, कि उसे विदेश यात्रा करने से पहले कितनी तरह की जानकारियाँ और "किलो" के भाव से दस्तावेज पेश करने पड़ते हैं… जबकि देश के "भावी प्रधानमंत्री"(?) और "वर्तमान प्रधानमंत्री नियुक्त करने वाली" मैडम, सरेआम नियमों की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं? जैसी की अपुष्ट खबरें हैं कि सोनिया गाँधी को कैंसर है (या कि था)। अब कैंसर कोई ऐसी सर्दी-खाँसी जैसी बीमारी तो है नहीं कि एक बार इलाज कर लिया और गायब… कैंसर का इलाज लम्बा चलता है और विशेषज्ञ डॉक्टरों के साथ कई-कई "मीटिंग और सिटिंग" तथा विभिन्न प्रकार की कीमो एवं रेडियो थेरेपी करनी पड़ती है (यहाँ हम यह "मानकर" चल रहे हैं कि सोनिया गाँधी को कैंसर हुआ है, क्योंकि जिस अस्पताल में वे भरती हैं वह एक कैंसर इंस्टीट्यूट है Sloan Kettering Cancer Center, New York)। इसका अर्थ यह हुआ कि पिछले 3-4 वर्षों में सोनिया गाँधी अपने "विश्वासपात्र" डॉक्टर से सलाह लेने कई बार विदेश आई-गई होंगी… क्या उन्हें एक बार भी यह खयाल नहीं आया कि लोकसभा सचिवालय एवं संसदीय कार्य मंत्रालय को सूचित कर दिया जाए? नियमों की ऐसी घोर अवहेलना, सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति को नहीं करना चाहिए।

माना कि कांग्रेस को लोकतन्त्र पर कभी भी भरोसा नहीं रहा (सन्दर्भ – चाहे आपातकाल थोपना हो, और चाहे कांग्रेस के दफ़्तरों के परदे बदलने के लिए "हाईकमान" की अनुमति का इन्तज़ार करने वालों का हुजूम हो), परन्तु इसका ये मतलब तो नहीं कि लोकसभा के छोटे-छोटे नियमों का भी पालन न किया जाए? बात सिर्फ़ नियमों की भी नहीं है, असली सवाल यह है कि आखिर "पवित्र परिवार"(?) को लेकर इतनी गोपनीयता क्यों बरती जाती है? माना कि "पवित्र परिवार" समूचे भारत की जनता को अपना "गुलाम" समझता है (बड़ी संख्या में हैं भी), परन्तु क्या एक लोकतन्त्र में आम जनता को यह जानने का हक नहीं है कि उनके "शासक" कहाँ जाते हैं, क्या करते हैं, उन्हें क्या बीमारी है, उनके रिश्तेदारियाँ कहाँ-कहाँ और कैसी-कैसी हैं? आदि-आदि…। अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों का पूरा "हेल्थ बायोडाटा" नेट और अखबारों में उपलब्ध होता है।

इधर ऐसी उड़ती हुई अपुष्ट खबरें हैं कि सोनिया गाँधी का कैंसर का ऑपरेशन हुआ है (हालांकि अभी पार्टी की ओर से अधिकारिक बयान नहीं आया, और शायद ही आए)। जनता के मन में सबसे पहला सवाल यही उठता है कि क्या भारत में ऐसे ऑपरेशन हेतु "सर्वसुविधायुकक्त" अस्पताल या उम्दा डॉक्टर नहीं हैं? या फ़िर दुनिया का सबसे दक्ष डॉक्टर मुँहमाँगी फ़ीस पर यहाँ भारत आकर कोई ऑपरेशन नहीं करेगा? यदि गाँधी परिवार आदेश दे, तो दिग्विजय सिंह, जनार्दन द्विवेदी जैसे कई कांग्रेसी नेता इतने "सक्षम" हैं कि दुनिया के किसी भी डॉक्टर को "उठवाकर" ले आएं… तो फ़िर विदेश जाकर, गुपचुप तरीके से नाम बदलकर, ऑपरेशन करवाने की क्या जरुरत है, खासकर उस स्थिति में जबकि इलाज पर लगने वाला पैसा देश के करदाताओं के खून-पसीने की कमाई से ही लगने वाला है…परन्तु यह सवाल पूछेगा कौन?

चलते-चलते :- RTI की इसी सूचना के आधार पर कुछ और चौंकाने वाली जानकारियाँ भी मिली हैं। फ़रवरी 2008 से जून 2011 तक सबसे अधिक बार "निजी" विदेश यात्रा पर गए, टॉप चार सांसद इस प्रकार हैं…

1) मोहम्मद मदनी (रालोद) = फ़रवरी 2008 से अब तक कुल 14 यात्राएं, 116 दिन (सऊदी अरब, बांग्लादेश, अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन)

2) एनके सिंह (जद यू) = मई 2008 से अब तक कुल 13 यात्राएं, 92 दिन (अमेरिका, चीन, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, ग्रीस, डेनमार्क)

3) बदरुद्दीन अजमल (जी हाँ, वही असम के इत्र वाले, बांग्लादेशी शरणार्थी प्रेमी) = अगस्त 2009 से अब तक कुल 9 यात्राएं, 61 दिन (सऊदी अरब, दुबई)

4) सीताराम येचुरी (सीपीआई-एम) - सितम्बर 2009 से अब तक कुल 8 यात्राएं, 43 दिन (अमेरिका, सीरिया, स्पेन, चीन, बांग्लादेश)

इन सभी में और "पवित्र परिवार" में अन्तर यह है कि ये लोग लोकसभा सचिवालय एवं सम्बन्धित मंत्रालय को सूचित करके विदेश यात्रा पर गये थे…(आप सोच रहे होंगे कि बार-बार “पवित्र परिवार” क्यों कहा जा रहा है, ऐसा इसलिये है क्योंकि भारतीय मीडियाई भाण्डों के अनुसार यह एक पवित्र परिवार ही है। इस परिवार की “पवित्रता” को बनाए रखना प्रत्येक मीडिया हाउस का “परम कर्तव्य” है… इस परिवार की पवित्रता का आलम यह है कि भ्रष्टाचार की बड़ी से बड़ी आँच इसे छू भी नहीं सकती तथा त्याग-बलिदान की “बेदाग” चादर तो लिपटी हुई है ही… मीडिया को बस इतना करना होता है, कि वह इस परिवार की “पवित्रता” को “मेन्टेन” करके चले…)
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स्रोत :- http://indiatoday.intoday.in/site/story/sonia-gandhi-rahul-gandhi-lok-sabha/1/146474.html?source=IT02082011
(श्री सुरेश चिपलूनकर के माध्यम से )

Monday, August 8, 2011

दंगों में हिन्दू महीला का बलात्कार अपराध नहीं माना जाएगा?

सोनिया गाँधी के “निजी मनोरंजन क्लब” यानी नेशनल एडवायज़री काउंसिल (NAC) द्वारा सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा विधेयक का मसौदा तैयार किया गया है जिसके प्रमुख बिन्दु इस प्रकार हैं-

1) कानून-व्यवस्था का मामला राज्य सरकार का है, लेकिन इस बिल के अनुसार यदि केन्द्र को “महसूस” होता है तो वह साम्प्रदायिक दंगों की तीव्रता के अनुसार राज्य सरकार के कामकाज में हस्तक्षेप कर सकता है और उसे बर्खास्त कर सकता है.(इसका मोटा अर्थ यह है कि यदि 100-200 कांग्रेसी अथवा 100-50 जेहादी तत्व किसी राज्य में दंगा फ़ैला दें तो राज्य सरकार की बर्खास्तगी आसानी से की जा सकेगी)

2) इस प्रस्तावित विधेयक के अनुसार दंगा हमेशा “बहुसंख्यकों” द्वारा ही फ़ैलाया जाता है, जबकि “अल्पसंख्यक” हमेशा हिंसा का लक्ष्य होते हैं…

3) यदि दंगों के दौरान किसी “अल्पसंख्यक” महिला से बलात्कार होता है तो इस बिल में कड़े प्रावधान हैं, जबकि “बहुसंख्यक” वर्ग की महिला का बलात्कार होने की दशा में इस कानून में कुछ नहीं है…

4) किसी विशेष समुदाय (यानी अल्पसंख्यकों) के खिलाफ़ “घृणा अभियान” चलाना भी दण्डनीय अपराध है (फ़ेसबुक, ट्वीट और ब्लॉग भी शामिल)…

5) “अल्पसंख्यक समुदाय” के किसी सदस्य को इस कानून के तहत सजा नहीं दी जा सकती यदि उसने बहुसंख्यक समुदाय के व्यक्ति के खिलाफ़ दंगा अपराध किया है (क्योंकि कानून में पहले ही मान लिया गया है कि सिर्फ़ “बहुसंख्यक समुदाय” ही हिंसक और आक्रामक होता है, जबकि अल्पसंख्यक तो अपनी आत्मरक्षा कर रहा है)…

इस विधेयक के तमाम बिन्दुओं का ड्राफ़्ट तैयार किया है, सोनिया गाँधी की “किचन कैबिनेट” के सुपर-सेकुलर सदस्यों एवं अण्णा को कठपुतली बनाकर नचाने वाले IAS व NGO गैंग के टट्टुओं ने… इस बिल की ड्राफ़्टिंग कमेटी के सदस्यों के नाम पढ़कर ही आप समझ जाएंगे कि यह बिल “क्यों”, “किसलिये” और “किसको लक्ष्य बनाकर” तैयार किया गया है…। “माननीय”(?) सदस्यों के नाम इस प्रकार हैं – हर्ष मंदर, अरुणा रॉय, तीस्ता सीतलवाड, राम पुनियानी, जॉन दयाल, शबनम हाशमी, सैयद शहाबुद्दीन… यानी सब के सब एक नम्बर के “छँटे हुए” सेकुलर । “वे” तो सिद्ध कर ही देंगे कि “बहुसंख्यक समुदाय” ही हमलावर होता है और बलात्कारी भी…NAC द्वारा सांप्रदायिक एवं लक्ष्यित हिंसा विधेयक का जो मसौदा प्रस्तुत किया गया है, प्रमुख बिंदुओं से ऐसा प्रतीत होता है कि मसौदा बनाने वाले संभवतः देश के बहुसंख्यक समुदाय के विरुद्ध पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं। साथ ही, ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार इस विधेयक के बहाने राज्य सरकारों के कामकाज में हस्तक्षेप करने और दंगों के बहाने दूसरे दलों की राज्य सरकारों को बर्खास्त करने का अधिकार प्राप्त करना चाहती है।यदि मसौदे में स्पष्ट या अस्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि दंगा हमेशा “बहुसंख्यकों” द्वारा ही फैलाया जाता है और “अल्पसंख्यक” हमेशा हिंसा का लक्ष्य होते हैं, तो यह न केवल देश के शांतिप्रिय बहुसंख्यक समाज का, बल्कि संविधान में व्यक्त नागरिक-समानता की मूल-भावना का भी अपमान है। यह मसौदा स्पष्ट रूप से भेदभावमूलक और अन्यायपूर्ण है, जिसमें बलात्कार की शिकार महिलाओं के बीच भी अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का भेद किया जाना प्रस्तावित है। यह तो और भी आश्चर्यजनक है कि इस कानून के तहत अल्पसंख्यक समाज के किसी सदस्य को सज़ा ही नहीं दी जा सकती। समिति के चेयरमैन और वाइस-चेयरमैन का पद अल्पसंख्यक समाज के सदस्यों के लिये आरक्षित रखा गया है। इससे स्पष्ट है कि सरकार इस समिति के बहाने जानबूझकर अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक समुदाय के सदस्यों के बीच गहरी खाई बढ़ाने के अवसर खोज रही है।

अवाम से कटी हुई यह सरकार मूलत: मुस्लिम तुष्टीकरण की दृष्टि से ही यह विधेयक ला रही है। इस विधेयक के अनुसार पहली बात तो यह कि मुस्लिम ऐसा समुदाय है, जो दंगें नही करता, हिंसा नही करता, सिर्फ पीड़ित समूह है। जबकि तथ्य यह है कि अंग्रेजों के समय से लेकर स्वतंत्र भारत में जितने दंगें हुए, उसकी शुरूआत करीब-करीब मुस्लिमों ने ही किया। अंग्रेजों की गुलामी के समय मोपला के दंगें अभी तक लोगों को जेहन में है, जिसमें हिन्दुओं पर अमानुषिक अत्याचार किए गए। यहां तक कि वर्ष 2002 के गुजरात दंगें भी जिनकी बहुत चर्चा अब तक की जाती है, वह भी गोधरा में 59 हिन्दुओं को जिंदा जलाकर मार दिए जाने से भड़के। सच्चाई यह है कि यह यू.पी.ए. सरकार जबसे सत्ता में आई है, इसका एक मात्र एजेण्डा मुस्लिम-तुष्टीकरण और उन्हे वोट बैंक बनाना ही रहा है। इस सरकार ने सत्ता में आते ही मुस्लिम छात्रों के लिए जिनके परिवार की वार्षिक आय ढ़ाई लाख रूपयें तक है, उन्हे मेरिट के आधार पर कोर्स के लिए बीस हजार, स्कालरशिप के नाम पर दस हजार, हास्टल सुविधा के नाम पर पॉच हजार रूपयें दे रही है। जबकि एस.सी. एवं एस.टी. समुदाय के छात्रों की हालत ज्यादा बुरी होने पर भी उन्हे यह सुविधा नही दी जा रही है। यह भी उल्लेखनीय है कि एस.टी.,एस.सी. एवं पिछड़ें वर्ग के छात्रों को जहां आय प्रमाण पत्र सक्षम राजस्व अधिकारियों से प्राप्त करना पड़ता है, वहां मुस्लिम छात्र नान जुडीशियल स्टाम्प में स्वत: यह प्रमाण पत्र दे सकते है। इसी तुष्टिकरण की नीति के तहत देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कह चुके है कि देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है। इसी के तहत बजट में मुस्लिमों के लिए 15 प्रतिशत का प्रावधान अलग से किया जाता है।

अब यह विधेयक संसद में रखा जाएगा, फ़िर स्थायी समिति के पास जाएगा, तथा अगले लोकसभा चुनाव के ठीक पहले इसे पास किया जाएगा, ताकि मुस्लिम वोटों की फ़सल काटी जा सके तथा भाजपा की राज्य सरकारों पर बर्खास्तगी की तलवार टांगी जा सके…। यह बिल लोकसभा में पास हो ही जाएगा, क्योंकि भाजपा(शायद) के अलावा कोई और पार्टी इसका विरोध नहीं करेगी…। जो बन पड़े उखाड़ लो…कुल मिलाकर ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार इस विधेयक के बहाने अल्पसंख्यक वोट-बैंक सुरक्षित करने और विपक्षी दलों की राज्य सरकारों के कार्य में बेवजह हस्तक्षेप करने का अधिकार प्राप्त करने के साथ-साथ बहुसंख्यक समाज के मन में भय उत्पन्न करने का प्रयास कर रही है। इस तरह के पूर्वाग्रह-युक्त किसी भी विधेयक को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिये और सभी स्तरों पर इसका कड़ा विरोध होना चाहिए। ”फूट डालों एवं राज करो” की नीति का अंग्रेजों ने इस्तेमाल कर देश में लम्बे समय तक राज किया। अब अंग्रेजों की उत्तराधिकारी कांग्रेस पार्टी भी यही सब कर रही है। प्रस्तावित विधेयक सामाजिक समरसता को छिन्न-भिन्न करने वाला, समाज को जोड़ने की जगह विभाजित करने वाला तो होगा ही। दुर्भाग्यवश यदि वह विधयेक अधीनियम का रूप ले लिया तो स्वतंत्र भारत के हिन्दू द्वितीय श्रेणी के नागरिक हो जाएगे और प्रकारान्तर से गुलामी के दौर में पंहुच जाएंगे।

Saturday, August 6, 2011

पाक आतंकी भारतीय जवानों का सर काट ले गए थे, हिना रबानी की भारत यात्रा के दौरान

आज मीडिया में आ रही खबरों के अनुसार पाकिस्तान में ट्रेनिंग लेने वाले आतंकवादियों ने दो भारतीय जवानों के सिर उनके धड़ों से अलग कर दिया और सिर अपने साथ ले गए। मीडिया में आ रही खबरों के मुताबिक घटना जुलाई के आखिरी हफ्ते 30 जुलाई 2011 को शाम 4.40 बजे तब घटी की है जब कुपवाड़ा जिले में नियंत्रण रेखा के पास सेना की पेट्रोलिंग पार्टी तीन ओर से घिर गई और आतंकवादियों और भारतीय सेना के बीच मुठभेड़ हुई थी। इस बात की आशंका जाहिर की जा रही है कि आतंकवादियों ने 20 कुमाऊं रेजिमेंट के दो जवानों की हत्या करके उनके सिर बतौर वॉर ट्रॉफी अपने साथ ले गए। लेकिन सेना के अधिकारी इस घटना की पुष्टि नहीं कर रहे हैं क्योंकि उन्हें डर है कि इसका कश्मीर में आतंकवादियों से लोहा ले रहे दूसरे जवानों के मनोबल पर बुरा असर पड़ सकता है।
 
पेट्रोलिंग पार्टी का हिस्सा रहा 19 राजपूत रेजिमेंट का एक अन्य जवान भी मुठभेड़ के दौरान शहीद हो गया था। सेना के अधिकारी दबी जुबान में कह रहे हैं कि कुमाऊं रेजिमेंट के दो जवानों के सिर धड़ से अलग कर दिए गए थे। उनके धड़ को भी विकृत कर दिया गया था। यह घटना तकरीबन उसी दौरान हुई जब पाकिस्तान की विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार भारत के दौरे पर थीं। क्या पाकिस्तानी विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार की पहली भारत यात्रा असफल न हो इसके लिए हमारे विदेश मंत्री और सेना चुप रही ?

शहीद जवानों की पहचान हवलदार जयपाल सिंह अधिकारी और लांस नायक देवेंद्र सिंह के रूप में की गई है। हालांकि, गोली से शहीद हुए तीसरे जवान के बारे में कोई जानकारी सामने नहीं आई है। जवानों का उनके पैतृक जिलों-पिथौरागढ़ और हल्द्वानी में अंतिम संस्कार कर दिया गया। अंतिम संस्कार के दौरान मौजूद उत्तराखंड पुलिस के अधिकारी ने इस बात की पुष्टि की कि शव ऐसी हालत में थे कि उनके परिवार या रिश्तेदारों को देखने की इजाजत नहीं दी गई। इस पुलिस अधिकारी का कहना है कि सेना की तरफ से मिली सूचना में कहा गया है कि गोलीबारी के दौरान इनके सिर धड़ से अलग हो गए।वहीं, लांस नायक देवेंद्र सिंह के चाचा ने भी इस बात को माना कि परिवारवालों को शहीद का शव देखने नहीं दिया गया।
 
पुलिस अधिकारी ने कहा कि आतंकवादियों ने रॉकेट से चलने वाले ग्रेनेड से जवानों पर हमला किया और उनके सिर उड़ा दिए गए। हेडक्वॉर्टर15 कॉर्प्स के प्रवक्ता लेफ्टिनेंट कर्नल जेएस बरार की तरफ से कोई बयान नहीं आया है। उधमपुर में मौजूद उत्तरी कमांड के आधिकारिक प्रवक्ता राजेश कालिया ने कहा कि नियंत्रण रेखा के पास मौजूद फरकियां गली में आतंकवादियों ने घुसपैठ करने की कोशिश की थी, जहां तीन आतंकवादी मारे गए थे। जवानों के सिर काटने के सवाल पर उन्होंने कहा कि इस मामले में ब्योरा उपलब्ध नहीं है।


Friday, August 5, 2011

भारत सरकार ने स्वीस सरकार से किया देश विरोधी करार

हाल ही में सेंट्रल बोर्ड ऑफ डायरेक्ट टैक्सेज के चेयरमैन प्रकाश चंद्र ने एक चौंकाने वाला  बयान दिया. यह बयान स्विट्जरलैंड और भारत के बीच काले धन के मामले में हुए  क़रार के बारे में था. इस समझौते को स्विट्जरलैंड की संसद की मंजूरी मिल गई है. इस क़रार में भारतीय नागरिकों के स्विस बैंकों के खातों के बारे में जानकारी  प्राप्त करने का प्रावधान है. प्रकाश चंद्र ने कहा कि, इस क़ानून के लागू होने  के बाद खोले गए खातों के बारे में ही जानकारी मिल सकती है. इस बयान का मतलब आप  समझते हैं? इसका मतलब यह है कि जो खाते इस क़ानून के लागू होने से पहले खुले थे, उनके बारे में अब कोई जानकारी मांगने का हक़ भारत का नहीं रहेगा . यानी भारत को अब तक जमा किए गए काले धन के बारे में कोई जानकारी नहीं मिल सकेगी. इसका मतलब यह है कि, भारत सरकार ने स्विट्जरलैंड की सरकार से यह क़रार किया है कि जो खाते पहले से चल रहे हैं, उनकी जानकारी उसे नहीं चाहिए. मतलब यह कि, सरकार उन लोगों को बचाने में जी जान से जुटी है, जिन्होंने अब तक काले धन को स्विस बैंकों में जमा किया है. अब कोई मूर्ख ही होगा, जो इस क़ानून के लागू होने के बाद स्विस बैंकों में अपना खाता खोलेगा. अब यह पता नहीं कि, सरकार किसे पकड़ना चाहती है.

अब देश की जनता हाथ मलती रह जाएगी, क्योंकि काला धन तो वापस अब नहीं आने वाला है. अब यह भी पता नहीं चल पाएगा कि वे कौन-कौन से कर्णधार और वर्तमान सरकार के पिर्य हैं, जिन्होंने देश का पैसा लूट कर अपने स्विस बैंकों के खातो में जमा किया है. भारत सरकार ने स्विट्जरलैंड की सरकार के साथ मिलकर ये एक शर्मनाक और देश विरोधी कारनामा किया है, लेकिन देश में इसकी चर्चा तक नहीं है? यह भी एक राज़ है कि, काले धन के मुद्दे पर अब तक भारत सरकार यह कहती आ रही थी कि, स्विट्जरलैंड के क़ानून की वजह से हमें इन खातों के बारे में जानकारी नहीं मिल रही है. तो भारत सरकार को यह क़रार करना चाहिए था कि, अब तक जितने भी खाते चल रहे हैं, उनकी जानकारी मिल सके, लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया. इससे यही सा़फ होता है कि, सरकार काले धन के मामले पर देश के लोगों को गुमराह कर रही है. दरअसल, काले धन के मामले पर सरकार सोचती कुछ है, बोलती कुछ है और करती कुछ और है. प्रेस कांफ्रेंस और मीडिया के सामने आते ही सरकार चलाने वाले साधू बन जाते हैं. मंत्री और नेता भ्रष्टाचार से लड़ने की कसमें खाते हैं. झूठा विश्वास दिलाने की कोशिश करते हैं कि वे काले धन को वापस लाने के सभी तरह के प्रयास कर रहे हैं. असलियत यह है कि सरकार देश की जनता और कोर्ट के सामने एक के बाद एक झूठ बोल रही है. जबकी पर्दे के पीछे से वह वह देश की जनता के साथ धोखा कर रही है.

अब ज़रा भारत और स्विट्‌जरलैंड के बीच हुए समझौते के बारे में समझते हैं. यह समझौता पिछले साल अगस्त के महीने में भारत के वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी और स्विस फेडेरल कॉउंसलर मिशेलिन कैमेरे ने किया, जिसमें डबल टैक्सेशन समझौते में बदलाव करने पर दोनों राजी हुए. अब इस समझौते को क़ानूनी शक्ल देने के लिए बीते 17 जून को स्विट्जरलैंड की संसद ने इसे पारित कर दिया. स्विट्जरलैंड की संसद में पारित होने के बाद इसे क़ानून बनने में 90 से 100 दिन लगेंगे. प्रकाश चंद्र के मुताबिक़, जब यह समझौता बतौर क़ानून लागू हो जाएगा, उसके बाद भारत सरकार जिस भी बैंक खाते के बारे में जानकारी लेना चाहेगी, वह मिल सकती है. मतलब यह क़ानून उन्हीं खातों पर लागू होगा, जो इस क़ानून के लागू होने के बाद खोले जाएंगे. अब सवाल यही है कि, जब इस क़ानून के दायरे में पहले से चल रहे बैंक खाते नहीं आएंगे, तब इस क़ानून का भारत के लिए क्या मतलब है? इस क़रार से भारत को कोई फायदा नहीं होगा, बल्कि ऩुकसान होगा, क्योंकि अब हमने पुराने खातों के बारे में जानकारी लेने का अधिकार ही खो दिया है. अब जब जांच एजेंसियां पुराने खातों के बारे में कोई जानकारी लेना चाहेंगी तो स्विट्‌जरलैंड की सरकार यह क़रार दिखा देगी और कहेगी कि यह खाता क़ानून लागू होने से पहले का है, हम कोई जानकारी नहीं देंगे. अब सवाल यह है कि भारत सरकार और वित्त मंत्री ने ऐसा करार क्यों किया हैं? देश के लोग स्विस बैंकों में काला धन जमा करने वाले अपराधियों को सज़ा दिलाना चाहते हैं और एक तरफ सरकार है, जिसके कामकाज से तो यही लगता है कि वह साम-दाम-दंड-भेद लगाकर सिर्फ और सिर्फ उन्हें बचाने की कोशिश में लगी है.

Thursday, August 4, 2011

हरियाणा सरकार गाँधी परिवार पर ही मेहरबान क्यों?

राहुल गाँधी किसानो के साथ 

जमीन अधिग्रहण पर हरियाणा सरकार कीनीतियों की देश भर में तारीफ की जाती है।किसानों का हक ना मारा जाए और उन्हें जमीनका सही मुआवजा मिले इसके लिए कांग्रेस केराजकुमार राहुल गांधी हुड्डा सरकार की नीतियोंकी ही मिसाल देते हैं। लेकिन वही हुड्डा सरकार अगर एक ही इलाके में किसानोंकी जमीन पर कब्जा कर ले लेकिन एक ट्रस्ट की जमीन को छोड़ दे तो दावों परसवाल लाजिमी हैं। खासकर तब जब ट्रस्ट राजीव गांधी के नाम पर हो औरउसकी चेयरपर्सन खुद सोनिया गांधी हों।

मामला गुड़गांव के उल्लावास गांव में इंदिरा गांधी आई हॉस्पिटल एंड रिसर्चसेंटर का है। यहां पर राजीव गांधी चैरिटेबल ट्रस्ट की देखरेख में एक अस्पतालबनना है। आठ एकड़ की इस जमीन पर एक बड़े विवाद का पौधा पनप रहा है।इस जमीन के आसपास जितनी भी जमीन है उसे हरियाणा सरकार अधिगृहितकर चुकी है। लेकिन हरियाणा की हुड्डा सरकार ने 6 दिसंबर 2010 को चौंकानेवाला फैसला लिया।

इंदिरा गांधी आई हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर की जमीन को अधिग्रहण से अलगकर दिया। यानी आसपास के किसानों और दूसरी सामाजिक संस्थाओं कीजमीन पर तो सरकार ने कब्जा कर लिया लेकिन आई हॉस्पिटल की जमीन कोकब्जा करने के बाद छोड़ दिया गया। सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्यों हुआतो जवाब ट्रस्ट के कर्ताधर्ताओं के नाम में छुपा है। राजीव गांधी चैरिटेबल ट्रस्टकी चेयरपर्सन खुद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं। जबकि राहुल गांधी औरप्रियंका गांधी ट्रस्ट के सदस्य हैं।
अगर सरकार कोई भी जमीन अधिग्रहण के बाद उसके मालिक को वापसलौटाती है तो इसके पूरे नियम हैं। खुद हरियाणा सरकार के दस्तावेज गवाह हैंकि अधिग्रहण के बाद कोई जमीन तब तक वापस नहीं दी जा सकती जब तक किः-


1. जमीन पर निर्माण कार्य पूरा हो चुका हो।
2. जमीन पर पहले से ही कोई फैक्ट्री या दुकान चल रही हो। 3. जमीन पर किसी धार्मिक संस्था ने इमारत बनवाई हो।

4. जमीन अधिग्रहण के एक साल के भीतर ही अपील की गई हो।
5. जमीन का मालिक कॉलोनी के लिए जमीन बेच चुका हो। 6जमीन का मालिक अदालत से आदेश लेकर आए।
लेकिन अदालत में आरोप लगाए जा रहे हैं कि राजीव गांधी चैरिटेबल ट्रस्ट तोसरकार के बनाए 6 नियमों में से किसी को भी पूरा नहीं करता, फिर आखिर उसेकैसे जमीन लौटाई गई? दरअसल हरियाणा सरकार ने गुड़गांव में रिहाइशी औरकमर्शियल इलाके के लिए सेक्टर-58 से लेकर सेक्टर-63 और सेक्टर-65 सेलेकर सेक्टर-67 तक बसाने की योजना बनाई। इसके लिए बाकायदा साल2009 में नोटिफिकेशन जारी करके 1417 एकड़ जमीन का सरकार नेअधिग्रहण कर लिया। इसमें वो जमीन भी शामिल थी जो राजीव गांधीचैरिटेबल ट्रस्ट को ग्राम पंचायत ने लीज पर दी थी। बाद में 46 एकड़ जमीनवापस कर दी गई और यहीं तमाम लोग भड़क उठे।
65 लोगों ने पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट में याचिका दायर कर सरकार के फैसलेको चुनौती दी है। उन्होंने एक और नियम के तोड़े जाने का आरोप लगाया है।नियम कहता है कि अगर अधिग्रहित जमीन सरकार वापस करती है तो येजमीन उसके मालिक को वापस की जाती है, लेकिन यहां अधिग्रहण रद्द करनेके बाद वो जमीन ग्राम पंचायत को नहीं लौटाई गई बल्कि राजीव गांधीचैरिटेबल ट्रस्ट को दे दी गई। आखिर क्यों?सरकार ने जिस 1417 एकड़ जमीनका अधिग्रहण किया उसकी चपेट में पद्मश्री से सम्मानित मशहूर चित्रकारअंजलि इला मेनन की जमीन भी आई। उनके वकील का आरोप है कि सरकारकिसी ट्रस्ट को ये कहकर फायदा नहीं पहुंचा सकती कि वो एक चैरिटेबल ट्रस्टहै। उनकी मानें तो मेनन भी एक चैरिटेबल ट्रस्ट चलाती हैं लेकिन उन्हें किसीतरह की छूट नहीं दी गई और इसलिए अब अदालत में हुड्डा सरकार को सांपसूंघा हुआ है। अदालत में कई बार पूछे जाने पर भी राजीव गांधी चैरिटेबल ट्रस्टका नाम तक लेने से डर रही है सरकार।
दस्तावेजों से घिरी हरियाणा सरकार ने कोर्ट में बचने के लिए दांव खेलना शुरूकर दिया है। ट्रस्ट का नाम आते ही सरकार पूरे मामले की समीक्षा के लिए हाईपावर कमेटी बनाने के लिए तैयार हो गई। इस पर कोर्ट ने हरियाणा सरकार कोजमकर फटकार लगाई। अदालत ने कहा कि 'सरकार जब रंगे हाथों पकड़ी गई हैतो वो मामले से भागने की फिराक में है।' जस्टिस जसबीर सिंह और जस्टिसऑगस्टीन मसीह की बेंच ने कहा कि 'जिस तरह का व्यवहार सरकार आमजनता के साथ कर रही है अदालत ये कतई बर्दाश्त नहीं कर सकती।'अदालत नेकहा कि 'वो इस पक्षपात को देख कर हैरान है और सरकार को इसे अब रोकनाहोगा।' अदालत ने सरकार को हिदायत दी कि वो सबके साथ अच्छा और समानबर्ताव करे। जाहिर है पूरे मामले ने हरियाणा सरकार की जमीन अधिग्रहण नीतिपर सवाल खड़े कर दिए हैं। जब आईबीएन-7 ने पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट में इसकेस की पैरवी कर रहे एडवोकेट जनरल से बात करने की कोशिश की तो वोकैमरे से बचते हुए निकल गए। हरियाणा सरकार फिलहाल इस मसले पर कुछनहीं बोलना चाहती।
अक्सर राहुल गांधी गैर-कांग्रेसी राज्यों में जाकर हरियाणा की जमीनअधिग्रहण नीति की तारीफ करते हैं लेकिन जिस तरीके से हुड्डा सरकार नेराजीव गांधी ट्रस्ट को नियम-कायदे ताक पर रखकर छूट दी उससे तो यहीऐहसास होता है कि हरियाणा में जमीन अधिग्रहण का डंडा सिर्फ कमजोरजनता पर चलता है जबकि प्रभावशाली लोगों को हरियाणा सरकार कानून ताकपर रखकर फायदा पहुंचा देती है। बहरहाल सरकार की इस नीति से कोर्ट नाराजहै और अब हरियाणा सरकार को हाईकोर्ट के सामने इस मामले पर अपनीसफाई देनी है।

नोट:- आईबीन  और एनडीटीवी की खबर के अधार पर