Saturday, February 18, 2012

भारत में ७ लाख ३२ हज़ार गुरुकुल एवं विज्ञान की २० से अधिक शाखाए थी

"भारत का स्वर्णिम अतीत" से आगे : अब बात आती है की भारत में विज्ञान पर इतना शोध किस प्रकार होता था, तो इसके मूल में है भारतीयों की जिज्ञासा एवं तार्किक क्षमता, जो अतिप्राचीन उत्कृष्ट शिक्षा तंत्र एवं अध्यात्मिक मूल्यों की देन है। "गुरुकुल" के बारे में बहुत से लोगों को यह भ्रम है की वहाँ केवल संस्कृत की शिक्षा दी जाती थी जो की गलत है। भारत में विज्ञान की २० से अधिक शाखाएं रही है जो की बहुत पुष्पित पल्लवित रही है जिसमें प्रमुख १. खगोल शास्त्र २. नक्षत्र शास्त्र ३. बर्फ़ बनाने का विज्ञान ४. धातु शास्त्र ५. रसायन शास्त्र ६. स्थापत्य शास्त्र ७. वनस्पति विज्ञान ८. नौका शास्त्र ९. यंत्र विज्ञान आदि इसके अतिरिक्त शौर्य (युद्ध) शिक्षा आदि कलाएँ भी प्रचुरता में रही है। संस्कृत भाषा मुख्यतः माध्यम के रूप में, उपनिषद एवं वेद छात्रों में उच्चचरित्र एवं संस्कार निर्माण हेतु पढ़ाए जाते थे।

थोमस मुनरो सन १८१३ के आसपास मद्रास प्रांत के राज्यपाल थे, उन्होंने अपने कार्य विवरण में लिखा है मद्रास प्रांत (अर्थात आज का पूर्ण आंद्रप्रदेश, पूर्ण तमिलनाडु, पूर्ण केरल एवं कर्णाटक का कुछ भाग ) में ४०० लोगो पर न्यूनतम एक गुरुकुल है। उत्तर भारत (अर्थात आज का पूर्ण पाकिस्तान, पूर्ण पंजाब, पूर्ण हरियाणा, पूर्ण जम्मू कश्मीर, पूर्ण हिमाचल प्रदेश, पूर्ण उत्तर प्रदेश, पूर्ण उत्तराखंड) के सर्वेक्षण के आधार पर जी.डब्लू.लिटनेर ने सन १८२२ में लिखा है, उत्तर भारत में २०० लोगो पर न्यूनतम एक गुरुकुल है। माना जाता है की मैक्स मूलर ने भारत की शिक्षा व्यवस्था पर सबसे अधिक शोध किया है, वे लिखते है "भारत के बंगाल प्रांत (अर्थात आज का पूर्ण बिहार, आधा उड़ीसा, पूर्ण पश्चिम बंगाल, आसाम एवं उसके ऊपर के सात प्रदेश) में ८० सहस्त्र (हज़ार) से अधिक गुरुकुल है जो की कई सहस्त्र वर्षों से निर्बाधित रूप से चल रहे है"।

उत्तर भारत एवं दक्षिण भारत के आकडों के कुल पर औसत निकलने से यह ज्ञात होता है की भारत में १८ वी शताब्दी तक ३०० व्यक्तियों पर न्यूनतम एक गुरुकुल था। एक और चौकानें वाला तथ्य यह है की १८ शताब्दी में भारत की जनसंख्या लगभग २० करोड़ थी, ३०० व्यक्तियों पर न्यूनतम एक गुरुकुल के अनुसार भारत में ७ लाख ३२ सहस्त्र गुरुकुल होने चाहिए। अब रोचक बात यह भी है की अंग्रेज प्रत्येक दस वर्ष में भारत में भारत का सर्वेक्षण करवाते थे उसे के अनुसार १८२२ के लगभग भारत में कुल गांवों की संख्या भी लगभग ७ लाख ३२ सहस्त्र थी, अर्थात प्रत्येक गाँव में एक गुरुकुल। १६ से १७ वर्ष भारत में प्रवास करने वाले शिक्षाशास्त्री लुडलो ने भी १८ वी शताब्दी में यहीं लिखा की "भारत में एक भी गाँव ऐसा नहीं जिसमें गुरुकुल नहीं एवं एक भी बालक ऐसा नहीं जो गुरुकुल जाता नहीं"।

राजा की सहायता के अपितु, समाज से पोषित इन्ही गुरुकुलों के कारण १८ शताब्दी तक भारत में साक्षरता ९७% थी, बालक के ५ वर्ष, ५ माह, ५ दिवस के होते ही उसका गुरुकुल में प्रवेश हो जाता था। प्रतिदिन सूर्योदय से सूर्यास्त तक विद्यार्जन का क्रम १४ वर्ष तक चलता था। जब बालक सभी वर्गों के बालको के साथ निशुल्कः २० से अधिक विषयों का अध्यन कर गुरुकुल से निकलता था। तब आत्मनिर्भर, देश एवं समाज सेवा हेतु सक्षम हो जाता था।

इसके उपरांत विशेषज्ञता (पांडित्य) प्राप्त करने हेतु भारत में विभिन्न विषयों वाले जैसे शल्य चिकित्सा, आयुर्वेद, धातु कर्म आदि के विश्वविद्यालय थे, नालंदा एवं तक्षशिला तो २००० वर्ष पूर्व के है परंतु मात्र १५०-१७० वर्ष पूर्व भी भारत में ५००-५२५ के लगभग विश्वविद्यालय थे। थोमस बेबिगटन मैकोले (टी.बी.मैकोले) जिन्हें पहले हमने विराम दिया था जब सन १८३४ आये तो कई वर्षों भारत में यात्राएँ एवं सर्वेक्षण करने के उपरांत समझ गए की अंग्रेजो पहले के आक्रांताओ अर्थात यवनों, मुगलों आदि भारत के राजाओं, संपदाओं एवं धर्म का नाश करने की जो भूल की है, उससे पुण्यभूमि भारत कदापि पददलित नहीं किया जा सकेगा, अपितु संस्कृति, शिक्षा एवं सभ्यता का नाश करे तो इन्हें पराधीन करने का हेतु सिद्ध हो सकता है। इसी कारण "इंडियन एज्यूकेशन एक्ट" बना कर समस्त गुरुकुल बंद करवाए गए। हमारे शासन एवं शिक्षा तंत्र को इसी लक्ष्य से निर्मित किया गया ताकि नकारात्मक विचार, हीनता की भावना, जो विदेशी है वह अच्छा, बिना तर्क किये रटने के बीज आदि बचपन से ही बाल मन में घर कर ले और अंग्रेजो को प्रतिव्यक्ति संस्कृति, शिक्षा एवं सभ्यता का नाश का परिश्रम न करना पड़े।

उस पर से अंग्रेजी कदाचित शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी नहीं होती तो इस कुचक्र के पहले अंकुर माता पिता ही पल्लवित होने से रोक लेते परंतु ऐसा हो न सका। हमारे निर्यात कारखाने एवं उत्पाद की कमर तोड़ने हेतु भारत में स्वदेशी वस्तुओं पर अधिकतम कर देना पड़ता था एवं अंग्रेजी वस्तुओं को कर मुक्त कर दिया गया था। कृषकों पर तो ९०% कर लगा कर फसल भी लूट लेते थे एवं "लैंड एक्विजिशन एक्ट" के माध्यम से  सहस्त्रो एकड़ भूमि भी उनसे छीन ली जाती थी, अंग्रेजो ने कृषकों के कार्यों में सहायक गौ माता एवं भैसों आदि को काटने हेतु पहली बार कलकत्ता में कसाईघर चालू कर दिया, लाज की बात है वह अभी भी चल रहा है। सत्ता हस्तांतरण के दिवस (१५-८-१९४७ ) के उपरांत तो इस कुचक्र की गोरे अंग्रेजो पर निर्भरता भी समाप्त हो गई, अब तो इसे निर्बाधित रूप से चलने देने के लिए बिना रीढ़ के काले अंग्रेज भी पर्याप्त थे, जिनमें साहस ही नहीं है भारत को उसके पूर्व स्थान पर पहुँचाने का | 


"दुर्भाग्य है की भारत में हम अपने श्रेष्ठतम सृजनात्मक पुरुषों को भूल चुके है। इसका कारण विदेशियत का प्रभाव और अपने बारे में हीनता बोध की मानसिक ग्रंथि से देश के बुद्धिमान लोग ग्रस्त है" – डॉ.कलाम, "भारत २०२० : सहस्त्राब्दी"


आप सोच रहे होंगे उस समय अमेरिका यूरोप की क्या स्थिति थी, तो सामान्य बच्चों के लिए सार्वजानिक विद्यालयों की शुरुआत सबसे पहले इंग्लैण्ड में सन १८६८ में हुई थी, उसके बाद बाकी यूरोप अमेरिका में अर्थात जब भारत में प्रत्येक गाँव में एक गुरुकुल था, ९७ % साक्षरता थी तब इंग्लैंड के बच्चों को पढ़ने का अवसर मिला। तो क्या पहले वहाँ विद्यालय नहीं होते थे? होते थे परंतु महलों के भीतर, वहाँ ऐसी मान्यता थी की शिक्षा केवल राजकीय व्यक्तियों को ही देनी चाहिए बाकी सब को तो सेवा करनी है।

(ये लेख पूजनीय राजीव दीक्षित जी के स्वर्णिम भारत 2 से है)

Friday, February 17, 2012

भारत का स्वर्णिम अतीत



पूर्णतः दोषी आप नहीं है, संपन्नता एवं उन्नति रूपी प्रकाश हेतु हम पूर्व की ओर ताकते है किंतु सूर्य हमारी पीठ की ओर से निकलता है। देशकाल की दृष्टि से कहूँ तो मात्र १९०-२४० वर्ष पूर्व का भारत, दूसरे शब्दों में, मनुष्य की औसत आयु ६० वर्ष भी मान ले तो मात्र ३-४ पीढ़ी पूर्व। दो सौ से भी अधिक विद्वान इतिहासकारों ने, शोधकर्ताओं ने जब "सोने की चिड़िया" (वर्तमान भारतियों में भारत के इतिहास के नाम पर शेष) पर शोध कर जो शोधपत्र, पुस्तके आदि लिखी उसके कुछ अंश आपसे साझा कर रहा हूँ।

जिनमें से एक थे, थोमस बेबिगटन मैकोले (टी.बी.मैकोले) जो १८३४ में आये एवं १८५१ लगभग १७ वर्ष तक भारत में रहे। जिस कुव्यवस्था के कारण हमे अपने ही देश का अतीत आपको विदेशी विद्वानों के प्रमाणों आदि से बताना पड़ रहा है, उसमें इनका बहुत बड़ा योगदान रहा है। इन्हें अभी विराम देते है, लोगो में धारणा बनी रहती है की अंग्रेजो के पहले का भारत मात्र कृषि प्रधान देश था जो की पूर्णतः असत्य है। अंग्रेजी इतिहासकार विलियम डिग्वी जिनके बारे में प्रचलित है की वे बिना किसी प्रमाण के कुछ बोलते नहीं, लिखते नहीं उन्होंने १७ वी शताब्दी में भारत को "सर्वश्रेष्ठ" व्यापारिक, कृषि एवं औद्योगिक देश लिखा है। भारत की भूमि को सबसे उपजाऊ, व्यापारियों को सबसे निपुण एवं भारतीय शिल्पकारों एवं दस्तकारो द्वारा निर्मित किसी भी उत्पाद का केवल स्वर्ण के ही बदले विक्रय होने की बात लिखता है। आगे इनकी लेखनी से यह निश्चित हो जाता है की भारत निर्यात प्रधान देश था। 

फ़्रांसिसी इतिहासकार फ्रांस्वा पेराड ने सन १७११ में भारत पर लिखे ग्रन्थ में सैकड़ों प्रमाण दिए है, वे लिखते है " मेरी जानकारी में भारत देश में ३६ प्रकार के ऐसे उद्योग चलते है जिनमें उत्पादित प्रत्येक वस्तु विदेशो में निर्यात होती है", "भारत के उत्पाद सबसे उत्कृष्ट एवं सबसे सस्ते होते है", "मुझे मिले प्रमाण के अनुसार है भारत का निर्यात ३००० वर्षों (अर्थात बुद्ध से ५०० वर्ष एवं महावीर जी से लगभग ६५० वर्ष पूर्व) से निर्बाधित रूप चलता आ रहा है"। स्कॉटिश इतिहासकार मार्टिन लिखते है "जब ब्रिटेन एवं इंग्लैण्ड के निवासी बर्बर एवं जंगली जानवरों की तरह जीवन जीते थे तब भारत में सर्वोच्च कोटि का वस्त्र बनता था एवं विश्व के देशों में विक्रय होता था"। आगे लिखते है की "मुझे यह स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं है की भारतवासियों ने विश्व को कपड़ा पहनना एवं बनाना सिखाया है" इसके साथ वह यह भी जोड़ते है की "रोमन साम्राज्य में जितने भी राजा रानी हुए है उन सभी ने भारत में ही निर्मित कपड़े पहने है, आयात किये है"|

विलियम वार्ड ने एवं फ़्रांस के टेवर्नियर ने भी भारत के वस्त्र उद्योग के बारे में बहुत से प्रमाण दिए है। सन १८१३ में अंग्रेजो की संसद में बहस के समय कई अंग्रेजी सांसदों ने कई प्रमाणों एवं सर्वेक्षणों के आधार पर विवरण दिया, सारे विश्व का लगभग ४३% उत्पादन अकेले भारत में होता है,यही बात उन्होंने १८३५ में एवं १८४० तक उद्धरण (quote) की। ऐसे ही सारे विश्व के निर्यात में भी भारत का भाग लगभग ३३% था इसे भी संसद में १८४० तक तक उद्धरण किया गया। इसी क्रम में एक अकड़ा सकल जगत की कुल आमंदनी का अंग्रेजो ने उद्धरण किया जिसमें से लगभग २७% भाग हमारा था।

जी.डब्ल्यू.लिटनेर, थोमस मुनरो, पैनडर्कास्ट्, कैम्पवेल आदि अधिकारीयों ने भी भारत की तकनीकी एवं शिक्षा व्यवस्था पर बहुत कार्य किया।

कैम्पवेल लिखते है "जिस देश का उत्पादन सबसे अधिक होता है यह तभी संभव है जब वहाँ कारखाने हो, कारखाने तभी संभव है जब तकनिकी हो, तकनीकी तभी संभव है जब विज्ञान हो एवं जब विज्ञान मूल रूप से शोध के लिए प्रस्तुत हो तब उसमें से तकनीकी का निर्माण होता है"।

शोध → विज्ञान { मूल विज्ञान (फंडामेंटल) > प्रयोगिक विज्ञान (एप्लाइड) } → तकनीकी → कारखाने → उत्पाद

- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
अगला  पढ़ें : भारत में ७ लाख ३२ हज़ार गुरुकुल एवं विज्ञान की २० से अधिक शाखाए थी.

(ये लेख पूजनीय राजीव दीक्षित जी के स्वर्णिम भारत १ से है)

Thursday, February 16, 2012

हिन्दुओ अपने सत्य इतिहास को पहचानो, उससे सबक लो..........




धर्म की वेदी पर प्राण न्योछावर करने वाले पिता-पुत्र शाहबेग सिंह और शाहबाज सिंह

अठारहवी शताब्दी का उत्तराद्ध चल रहा था. देश पर मुगलों का राज्य था. भाई शाहबेग सिंह लाहौर के कोतवाल थे. आप अरबी और फारसी के बड़े विद्वान थे और अपनी योग्यता और कार्य कुशलता के कारण हिन्दू होते हुए भी सूबे के परम विश्वासपात्र थे. मुसलमानों के खादिम होते हुए भी हिन्दू और सिख उनका बड़ा सामान करते थे. उन्हें भी अपने वैदिक धर्म से अत्यंत प्रेम था और यही कारण था की कुछ कट्टर मुस्लमान उनसे मन ही मन द्वेष करते थे. शाहबेग सिंह का एकमात्र पुत्र था शाहबाज सिंह. आप १५-१६ वर्ष के करीब होगे और मौलवी से फारसी पढने जाया करते थे. वह मौलवी प्रतिदिन आदत के मुताबिक इस्लाम की प्रशंसा करता और हिन्दू धर्म को इस्लाम से नीचा बताता. आखिर धर्म प्रेमी शाहबाज सिंह कब तक उसकी सुनता और एक दिन मौलवी से भिड़ पड़ा. पर उसने यह न सोचा था की इस्लामी शासन में ऐसा करने का क्या परिणाम होगा.

मौलवी शहर के काजियों के पास पहुंचा और उनके कान भर के शाहबाज सिंह पर इस्लाम की निंदा का आरोप घोषित करवा दिया.पिता के साथ साथ पुत्र को भी बंदी बना कर काजी के सामने पेश किया गया. काजियों ने धर्मान्धता में आकर घोषणा कर दी की या तो इस्लाम काबुल कर ले अथवा मरने के लिए तैयार हो जाये.जिसने भी सुना दंग रह गया. शाहबेग जैसे सर्वप्रिय कोतवाल के लिए यह दंड और वह भी उसके पुत्र के अपराध के नाम पर. सभी के नेत्रों से अश्रुधारा का प्रवाह होने लगा पर शाहबेग सिंह हँस रहे थे. अपने पुत्र शाहबाज सिंह को बोले “कितने सोभाग्यशाली हैं हम, इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे की मुसलमानों की नौकरी में रहते हुए हमें धर्म की बलिवेदी पर बलिदान होने का अवसर मिल सकेगा किन्तु प्रभु की महिमा अपार हैं, वह जिसे गौरव देना चाहे उसे कौन रोक सकता हैं. डर तो नहीं जाओगे बेटा?” नहीं नहीं पिता जी! पुत्र ने उत्तर दिया- “आपका पुत्र होकर में मौत से डर सकता हूँ? कभी नहीं. देखना तो सही मैं किस प्रकार हँसते हुए मौत को गले लगता हूँ.”

पिता की आँखे चमक उठी. “मुझे तुमसे ऐसी ही आशा थी बेटा!” पिता ने पुत्र को अपनी छाती से लगा लिया.

दोनों को इस्लाम काबुल न करते देख अलग अलग कोठरियों में भेज दिया गया.

मुस्लमान शासक कभी पिता के पास जाते , कभी पुत्र के पास जाते और उन्हें मुसलमान बनने का प्रोत्साहन देते. परन्तु दोनों को उत्तर होता की मुसलमान बनने के बजाय मर जाना कहीं ज्यादा बेहतर हैं.

एक मौलवी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए पुत्र से बोला “बच्चे तेरा बाप तो सठिया गया हैं, न जाने उसकी अक्ल को क्या हो गया हैं. मानता ही नहीं? लेकिन तू तो समझदार दीखता हैं. अपना यह सोने जैसा जिस्म क्यों बर्बाद करने पर तुला हुआ हैं. यह मेरी समझ में नहीं आता.”

शाहबाज सिंह ने कहाँ “वह जिस्म कितने दिन का साथी हैं मौलवी साहिब! आखिर एक दिन तो जाना ही हैं इसे, फिर इससे प्रेम क्यूँ ही किया जाये. जाने दीजिये इसे, धर्म के लिए जाने का अवसर फिर शायद जीवन में इसे न मिल सके.”

मौलवी अपना सा मुँह लेकर चला गया पर उसके सारे प्रयास विफल हुएँ.

दोनों पिता और पुत्र को को चरखे से बाँध कर चरखा चला दिया गया. दोनों की हड्डियां एक एक कर टूटने लगी , शरीर की खाल कई स्थानों से फट गई पर दोनों ने इस्लाम स्वीकार नहीं किया और हँसते हँसते मौत को गले से लगा लिया.अपने धर्म की रक्षा के लिए न जाने ऐसे कितने वीरों ने अपने प्राण इतिहास के रक्त रंजित पन्नों में दर्ज करवाएँ हैं. आज उनका हम स्मरण करके ,उनकी महानता से कुछ सिखकर ही उनके ऋण से आर्य जाति मुक्त हो सकती हैं.

(डॉक्टर विवेक आर्य, ब्लॉग अग्निवीर से)

Friday, February 3, 2012

क्या अकबर महान था ?


कभी भी कोई भी आत्मसम्मान वाला देश और उसके देशवासी अपने देश को लूटने , अपनी बहन बेटी के बलात्कार करने वाले और हर तरह के व्यभीचारी आक्रमणकर्ताओं के द्वारा लिखा इतिहास स्वीकार नही कर सकते......तो फिर हम लोगो को क्या हो गया है जो हम महाराणा प्रताप को कायर और अकबर को महान बोलते है?....अकबर को महान बोलने वाले लोग यहाँ पर देखे...की कैसे हम लोगो से सच को छुपा कर आज तक गुलाम बना कर रखा गया है.

हिन्दुस्तान का अस्तित्वा मिटाने के लिए...इतिहासकार विंसेट स्मिथ ने साफ़ लिखा है की अकबर एक सबसे बड़ा दुष्कर्मी, घ्रणित, पूर्व विचारित, निरकुश हत्याकांड करने वाला क्रूर शशक था.....और आप और हम सब क्या पढ़ रहे है की अकबर महान था. क्या ये सब महानता के लक्षण होते है??? 

*जून 1561- एटा जिले के (सकित परंगना) के 8 गांव की हिंदू जनता के विरुद्ध अकबर ने खुद एक आक्रमण का संचालन करा और परोख नाम के गांव के मे १००० से ज़्यादा हिंदुओं को जिंदा जलवा दिया था........क्या ये था अकबर महान?

*क्या अकबर ने हिंदू राजकुमारियों से इज़्ज़त के साथ विवाह कर? नही एक से भी नही...जोधा बाई से भी नही ....ये सभी बलात उठाई गयी थी या फिर उनके बाप भाई को हिरासत मे ले कर दी गयी यातनाओ को बंद करने की एकमात्र शर्त पूरी करने का प्रतिफल थी....चाहे वो राजा भारमल और उनके ३ राजकुमारों को यातना दे कर उनकी पुत्री को हरम मे भेजने को मज़बूर करना हो ...इसके अनगिनत उदहारण है..सबूतों के साथ..

* सबसे मनगढ़ंत किस्सा की अकबर ने दया करके सतीप्रथा पे रोक लगा दी..जबकि इसके पीछे उसका मुख्य मकसद केवल यही था की उनके राजाओं को मार कर राजकुलिन हिन्दू नारियों को अपने हरम में ठूंस दो....राजकुमार जैमल की हत्या के पश्चात अपनी अस्मत बचाने को घोड़े पे सवार होकर सती होने जा रही उसकी पत्नी को अकबर ने शमशान घाट जा रहे सम्बन्धियों को बीच रस्ते से ही पकड़ कर उसके सारे सम्बन्धियों को कारागार में डाल के राजकुमारी को हरम में ठूंस दिया था.....अगर वो दया वाला था तो ससम्मान उसके जिंदा सम्बन्धियों को समर्पित कर देता और जाने देता.

*अकबर की प्रशंशा के गीत गाने वाला अबुल फज़ल -आईने अकबरी , को अकबर के समय के सारे मुगलों ने अकबर का एक नंबर का निर्लज्ज चापलूस बताया है

* जिसके खानदान के सारे पुरावाज़ जैसे हुमायूँ , बाबर दुनिया के सबसे बड़े जल्लाद थे और अकबर के बाद के जहागीर और औरंगजेब दुनिया के सबसे बड़े दरिन्दे थे तो ये बीच में महानता की पैदाईश कैसे हो गयी जबकि इसके कुकर्मों के सारे साक्ष्य आज भी उपस्थित है ..लेकिन हम भारतिय मजबूर क्योंकी हमसे सच से दूर रखा गया.

* अकबर के सभी धर्म के सम्मान करने का सबसे बड़ा सबूत----हिन्दुस्थान की सभी नदियों के किनारे छोटे छोटे घाट बने है , जहाँ हिन्दू अपने पर्व पे सरलता से स्नान और पूजा करते है लेकिन हिन्दू राजाओं द्वारा निर्मित अलाहबाद के किले में जहाँ ये रहता था....गंगा यमुना सरस्वती का संगम ( जहाँ कुम्भ का मेला सदियों से आज भी लगता आ रहा है) के किनारे के सारे घाट इस पिशाच मुग़ल ने तोड़ डाले थे...आज भी वो सारे साक्ष्य वहा मोजूद है..

* अकबर के सभी धर्म के सम्मान करने का सबसे बड़ा सबूत---२८ फरवरी १५८० को गोवा से एक पुर्तगाली मिशन इसके एक और निवास स्थान फतेहपुर पंहुचा जहाँ उन लोगो ने इनको एक बाईबल भेंट करी जिसे इसने बिना हाथ लगाए ही वापस कर दिया...( मोदी जी के मुल्ला टोपी न पहनने पे बवाल मचाने वाले सेकुलर कीड़े इसकी इसी महानता के गुणगान करते है?)

* हमारे इतिहास में हम लोगो को मुर्ख बनाने के लिए कहा जाता है की अकबर को देवी आती थी जबकि 1578 में उसे पहली बार मिर्गी का दौरा पड़ा था क्योंकि उसके सभी दरबारी उससे बगावत कर रहे थे जिससे उसकी मानसिक हालत ख़राब हो चुकी थी......

*४ आगस्त १५८२ को इस्लाम को अस्वीकार करने के कारण सूरत के २ ईसई युवकों को अकबर ने अपने हाथों से क़त्ल किया था जबकि इसाईयों ने इन दोनों युवकों को छोड़ने के लिए १००० सोने के सिक्को का सौदा किया था..लेकिन उसने क़त्ल को ज्यादा सही समझा..

*अगस्त १५८२ में २० नवजात हिन्दू शिशुओं को उनकी माताओं से छीन कर भाषा उत्पत्ति नामक एक गन्दा अमानवीय प्रयोग करने के लिए एकांत और निर्जन स्थान पे भेज दिया जिसमे वो सभी अकाल मृत्यु के शिकार हो गए..

*१५८७ में जनता का धन लूटने और अपने खिलाफ हो रहे विरोधों को ख़तम करने के लिए अकबर ने एक आदेश पारित करा की जो भी उससे मिलना चाहेगा उसको अपनी उम्र के बराबर मुद्रए उसको भेंट में देनी पड़ेगी.

* जिन्दगी भर अकबर की गुलामी करने वाले हिन्दू राजा टोडरमल ने अपने जीवन के आखिरी समय में अपनी गलती मान कर उसके प्रेषित के लिए हरिद्वार में अपने प्राण त्यागने की इच्छा जताई थी..

*औरतों का झूठा सम्मान करने वाले अकबर ने सिर्फ राजपाट और अपनी हवास के लिए न जाने कितनी मुस्लिम औरतों की अस्मत लुटी थी और हिन्दू औरतों को हरम में ठूंस दिया था..इसमें मुस्लिम नारी चाँद बीबी का नाम भी है

औरतों का झूठा सम्मान करने वाले अकबर ने सिर्फ राजपाट और अपनी हवस के लिए अपनी सगी बेटी आराम बेगम की पूरी जिंदगी शादी नहीं की और अंत में उस की मौत अविवाहित ही जहागीर के शाशन काल में हुयी...

*दिनभर इसकी चाटुकारिता करने वाले अबुल फज़ल की चापलूसी की हरकतों से तंग आके अकबर के पुत्र सलीम ने ही उसको घात लगा के ग्वालियर में हत्या कर दी थी....

*जीवन भर इससे युद्ध करने वाले महान महाराणा प्रताप जी से अंत में इसने खुद ही हार मान ली थी और इसको हरा कर हिन्दू राजाओं की अस्मत बचाने का श्रय हिन्दू राजाओं ने महाराणा प्रताप के ही सर पे बंधा था..( इन्ही महारण को मुस्लिम तुष्टिकरण और हिन्दू खून के प्यासे गाँधी ने कायर बताया था)...

इसी परंपरा को अकबर के पुत्र जहागीर ने आगे बढ़ाया था की अकबर के बार बार निवेदन करने पे भी जीवन भर जहागीर केवल ये बहाना करके .महराना प्रताप के पुत्र अमर सिंह से युद्ध करने नहीं गया की उसके पास हथियारों और सैनिकों की कमी है..जबकि असलियत ये थी की उसको अपने बाप का बुरा हश्र याद था.

किसी ने सही कहा है कि, "इतिहास बनाये नहीं जाते बल्कि इतिहास  "'लिखे " जाते है, और वह भी अपने मुताबिक़....", ताकि आने वाली पीढ़ियों तक सच्चाई कभी न पहुँच सके |