Thursday, February 16, 2012

हिन्दुओ अपने सत्य इतिहास को पहचानो, उससे सबक लो..........




धर्म की वेदी पर प्राण न्योछावर करने वाले पिता-पुत्र शाहबेग सिंह और शाहबाज सिंह

अठारहवी शताब्दी का उत्तराद्ध चल रहा था. देश पर मुगलों का राज्य था. भाई शाहबेग सिंह लाहौर के कोतवाल थे. आप अरबी और फारसी के बड़े विद्वान थे और अपनी योग्यता और कार्य कुशलता के कारण हिन्दू होते हुए भी सूबे के परम विश्वासपात्र थे. मुसलमानों के खादिम होते हुए भी हिन्दू और सिख उनका बड़ा सामान करते थे. उन्हें भी अपने वैदिक धर्म से अत्यंत प्रेम था और यही कारण था की कुछ कट्टर मुस्लमान उनसे मन ही मन द्वेष करते थे. शाहबेग सिंह का एकमात्र पुत्र था शाहबाज सिंह. आप १५-१६ वर्ष के करीब होगे और मौलवी से फारसी पढने जाया करते थे. वह मौलवी प्रतिदिन आदत के मुताबिक इस्लाम की प्रशंसा करता और हिन्दू धर्म को इस्लाम से नीचा बताता. आखिर धर्म प्रेमी शाहबाज सिंह कब तक उसकी सुनता और एक दिन मौलवी से भिड़ पड़ा. पर उसने यह न सोचा था की इस्लामी शासन में ऐसा करने का क्या परिणाम होगा.

मौलवी शहर के काजियों के पास पहुंचा और उनके कान भर के शाहबाज सिंह पर इस्लाम की निंदा का आरोप घोषित करवा दिया.पिता के साथ साथ पुत्र को भी बंदी बना कर काजी के सामने पेश किया गया. काजियों ने धर्मान्धता में आकर घोषणा कर दी की या तो इस्लाम काबुल कर ले अथवा मरने के लिए तैयार हो जाये.जिसने भी सुना दंग रह गया. शाहबेग जैसे सर्वप्रिय कोतवाल के लिए यह दंड और वह भी उसके पुत्र के अपराध के नाम पर. सभी के नेत्रों से अश्रुधारा का प्रवाह होने लगा पर शाहबेग सिंह हँस रहे थे. अपने पुत्र शाहबाज सिंह को बोले “कितने सोभाग्यशाली हैं हम, इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे की मुसलमानों की नौकरी में रहते हुए हमें धर्म की बलिवेदी पर बलिदान होने का अवसर मिल सकेगा किन्तु प्रभु की महिमा अपार हैं, वह जिसे गौरव देना चाहे उसे कौन रोक सकता हैं. डर तो नहीं जाओगे बेटा?” नहीं नहीं पिता जी! पुत्र ने उत्तर दिया- “आपका पुत्र होकर में मौत से डर सकता हूँ? कभी नहीं. देखना तो सही मैं किस प्रकार हँसते हुए मौत को गले लगता हूँ.”

पिता की आँखे चमक उठी. “मुझे तुमसे ऐसी ही आशा थी बेटा!” पिता ने पुत्र को अपनी छाती से लगा लिया.

दोनों को इस्लाम काबुल न करते देख अलग अलग कोठरियों में भेज दिया गया.

मुस्लमान शासक कभी पिता के पास जाते , कभी पुत्र के पास जाते और उन्हें मुसलमान बनने का प्रोत्साहन देते. परन्तु दोनों को उत्तर होता की मुसलमान बनने के बजाय मर जाना कहीं ज्यादा बेहतर हैं.

एक मौलवी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए पुत्र से बोला “बच्चे तेरा बाप तो सठिया गया हैं, न जाने उसकी अक्ल को क्या हो गया हैं. मानता ही नहीं? लेकिन तू तो समझदार दीखता हैं. अपना यह सोने जैसा जिस्म क्यों बर्बाद करने पर तुला हुआ हैं. यह मेरी समझ में नहीं आता.”

शाहबाज सिंह ने कहाँ “वह जिस्म कितने दिन का साथी हैं मौलवी साहिब! आखिर एक दिन तो जाना ही हैं इसे, फिर इससे प्रेम क्यूँ ही किया जाये. जाने दीजिये इसे, धर्म के लिए जाने का अवसर फिर शायद जीवन में इसे न मिल सके.”

मौलवी अपना सा मुँह लेकर चला गया पर उसके सारे प्रयास विफल हुएँ.

दोनों पिता और पुत्र को को चरखे से बाँध कर चरखा चला दिया गया. दोनों की हड्डियां एक एक कर टूटने लगी , शरीर की खाल कई स्थानों से फट गई पर दोनों ने इस्लाम स्वीकार नहीं किया और हँसते हँसते मौत को गले से लगा लिया.अपने धर्म की रक्षा के लिए न जाने ऐसे कितने वीरों ने अपने प्राण इतिहास के रक्त रंजित पन्नों में दर्ज करवाएँ हैं. आज उनका हम स्मरण करके ,उनकी महानता से कुछ सिखकर ही उनके ऋण से आर्य जाति मुक्त हो सकती हैं.

(डॉक्टर विवेक आर्य, ब्लॉग अग्निवीर से)

1 comment:

  1. आपकी यह रचना पहले भी पढ़ी मगर उस वक्त समझ ही नहीं आया क्या कहूँ दुबारा आई हूँ पढ़ने मगर आब भी ऐसा लग रहा है कहने को बहुत्त कुछ है मगर शब्द नहीं है बहुत ही मार्मिक कहानी का चित्रण किया है आपने...बहुत ही संवेदन शील रचना... समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर भी आपका स्वागत है।

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