आज दुनिया के किसी भी देश को ले लो, उस देश में
बनने वाली या प्रदर्शित होने वाली फिल्मे देश की संस्कृति पर गहरी छाप छोड़
देती हैं. फिल्मे जो केवल मनोरंजन का एक साधन समझी जाती हैं, किसी भी देश
को बना या बिगाड़ सकती हैं. कुछ रुपयों की टिकट लेकर आप जब फिल्म देखने जाते
हैं और दो से तीन घंटे उस अँधेरे हाल में बिताने के बाद जब बहार निकलते
हैं तो आप अनजाने ही काफी सके तक उन पत्रों से जुड़े रहते हैं. और इसका सीधा
मनोवैज्ञानिक कारण है कि आप फिल्म को एकटक अँधेरे हाल में देख रहे होते
हैं और वह सीधे आपके मस्तिष्क पर असर डालती है.
आइये अब देखते हैं क कैसे इन अभिनेताओं, कहानियों तथा गीतों ने हमारी सनातन संस्कृति का सत्यानास किया.
एक समय था जब एक मुस्लिम अभिनेता को सफल होने के लिए हिन्दू नाम का सहारा
लेना पड़ता था. युसूफ खान (दिलीप कुमार) से अच्छा उदाहरण और कोई नहीं मिल
सकता. संजय ने बहुत लम्बे समय तक खुद के नाम के आगे खान लिखने से परहेज़
किया.लेकिन आज? आज शाहरुख़ खान बड़े गर्व से कहता है कि वह पठान है और उस
पर तुर्रा यह कि एक हिन्दू लड़की से विवाह करके बड़ी शान से जी रहा है. एक
वही क्यों? जिस भी मुस्लिम कलाकार या क्रिकेटर को देखो, हिन्दू लड़कियों से
प्रेम सम्बन्ध बनाना या विवाह करना अपना धर्म समझता है. क्या यह सब अचानक
हो रहा है? क्या यह एक सोची समझी साज़िश नहीं है? शर्मीला टैगोर /पटौदी से
आरंभ हुई यह कहानी आज घर घर में दोहराई जा रही है. luv jihaad कि सफलता
का बड़ा कारण यही है. यह अभिनेता आज लोगों के ideals हैं और इन्ही की देखा
देखि हिन्दू लड़कियां भी मुस्लिम लड़कों के चंगुल में फंसती जा रही हैं.
एक समय जब एक धर्म के लड़के की शादी किसी दूसरे धर्म के लड़के से दिखाई जाती
थी तो दंगे फसाद हो जाते थे, जब कि आजकल तो फ़िल्मी कहानियों में हिन्दू
लड़कियों कि शादी मुसलमानों से बड़ी शान से दिखाई जा रही है और कहा जा रहा
है कि वह आंतंकवादी नहीं है. जब से मैंने फिल्मे देखना आरम्भ किया है,
मैंने देखा है कि हर फिल्म में एक मुसलमान सच्चा मुसलमान होने का दावा करता
है और किसी हिन्दू की जान बचाता है. हिन्दू साधुओं को केवल ढोंगी ही
दिखाया गया. कोई फिल्म याद नहीं जिसमे हिन्दू ने मुसलमान बच्चे को अपना
बच्चा बना कर पाला हो. क्या कारण था कि केवल ऐसी ही कहानियां लिखी जाती थी?
हर अच्छा पुलिस वाला, सैनिक, आम आदमी या फिर कसाई भी सच्चा मुसलमान होता
था और चोर , गुंडे आदि केवल हिन्दू?
हर हिंदी फिल्म के गीत में
"खुदा खैर करे,/ अल्लाह जाने क्या होगा आगे" आदि शब्दों कि भरमार होती थी
और है. क्या हिंदी के व्यकरण के सभी, रस तथा अलंकार देवी देवताओं के नाम आदि कम पड़ जाते हैं ? क्या हिंदी भाषा इतनी अशक्त है कि उसमे कुछ शब्द ही नहीं मिलते थे गीत लिखने के लिए ?
क्या आपको इस सबके पीछे कोई षड़यंत्र नज़र नहीं आता? एक सोचा समझा षड्यंत !
क्या इस तरह धीरे-२ इस्लाम को तथा उर्दू को भारत में फैलाया जाना किसीको
नहीं दिख रहा? जिस नेता को u p के भैये दीखते हैं, यह मुल्ले नहीं दीखते?
या फिर उनसे लड़ने की ताकत नहीं है ?
आज तो फ़िल्मी दुनिया में इन
खान`स की पूरी दादागिरी है. जो नायिका उनका कहा नहीं मानती, वह चल ही नहीं
सकती. जो हिन्दू कलाकार इनके बारे में एक शब्द भी कह दे, फ़िल्मी दुनिया से
बहार का रास्ता दिखा दिया जाता है. विवेक ओबेरॉय इसका एक उदाहरण है. पिछले
दिनों हृतिक रोशन से नाराज़गी की वजह से उसे बिग बोस में सलमान खान ने अपनी
फिल्म अग्निपथ का प्रोमोतिओं नहीं करने दिया. यहाँ तक कि संजय दत्त की भी
एक न चली. जब तक ताकत नहीं है भाई बन कर रहो और जैसे ही ताकत हाथ में आई, तानाशाही शुरू. कोई बड़ी बात नहीं कि हिन्दू कलाकारों को फ़िल्मी
दुनिया में टिके रहने के लिए जजिया भी देना पड़ता हो ! क्यों न हो ? आखिर Financer तो दुबई तथा पाकिस्तान में बैठे हैं.
आपमें से कितनो को
यह पता है क केवल हिन्दू धर्म का मज़ाक र्दाने के ईए धारावाहिक रामायण की
नायिका सीता माता (दीपिका) को एक बहुत ही गंदे रोल में दिखाया गया था और यह
कहा गया था क देखो ! यह है तुम्हारी सीता.
२०११ के अंत में एक फिल्म
का बड़े जोर शोर से ऐलान हो रहा था जिसमे एक मुस्लिम बेटी अपने बाप से
पूछती है क "यदि पाल नहीं सकते थे तो पैदा ही क्यों किया ७ लड़कियों को ?"
कहाँ गई फिल्म?
फिल्म अज़ान कहाँ गम हो गई सभी websites से, सोचो
क्यों? यदि एक फिल्म से कुछ असर न पड़ता हो तो क्यों बंद करवाते हाँ यह
फिल्मे? कितना पैसा और ताकत खर्च करते हैं यह एक फिल्म को डिब्बे में बंद
करवाने में ? क्यों ?आप logon ko पता ही नहीं चला कि कब दूसरी भाषा उर्दू
भारत कि मुख्या भाषा हिंदी में विलीन होकर हिंदी को खाती चली गई और आज किसी
बच्चे तो क्या, बड़े से भी पूछो तो उसे विशुद्ध हिंदी बोलनी नहीं आती.
(मैं स्वंयं भी उन्ही में से एक हूँ) . यहाँ तक कि शुद्ध हिंदी में वार्ता
करने वाले का उपहास ही किया जाता है. समाचार पत्र जो पहले विशुद्ध हिंदी
में लिखते थे , अब अपने भाषा भूल कर उर्दू और अंग्रेजी शब्दों का समावेश
करने लगे हैं. नवभारत टाइम्स में आज ही उर्दू कि इतनी तारीफ़ कि गई थी कि आग
लग गई. क्या आपको खतरे कि घंटी सुनाई नहीं देती?
आज आपकी भाषा,
संस्कृति धीरे-२ लुप्त होती जा रही है और आप हैं कि, कुछ भी नहीं कर रहे. आप
पूछेंगे, "क्या कर सकता हूँ मैं? मैं अकेला कर ही क्या सकता हूँ?"
तो मेरे मित्रों, मेरे बच्चों, मेरे बुजुर्गों ! आज के बाद किसी खान कि
फिल्म सिनेमा हाल पर दिखना बंद. जिस CD के किसी एक भी गाने में हिन्दू को
अल्लाह या खुदा के नाम पर गाते हुए कोई भी गाना हो, उस CD को खरीदना बंद.
जिस फिल्म में किसी हिन्दू लड़की को मुस्लिम लड़के से विवाह करते या प्रेम
करते दिखाया गया हो, उस फिल्म का सार्वजनिक बहिष्कार. हर वह वस्तु जिसका
विज्ञापन कोई मुस्लिम कलाकार कर रहा हो, का बहिष्कार.
यह मत
सोचो क एक आपके न खरीदने से या फिल्म न देखने से क्या होगा ! जब उन्हें ७०
साल लगे हैं हमें खुद में विलीन करने में तो हमें भी कुछ समय तो लगेगा ही.
उपहास भी किया जायगा आपका. पर जब पक्के हो तो पक्के रहो. केवल बातों से,
नारे लगाने से, सरकार मुर्दाबाद कहने से कुछ नहीं होगा !
यदि अपने धर्म को, अपने देश को बचाना है, अपनी संस्कृति को बचाना है तो कट्टर बनो. कट्टर बन ने का अर्थ यह नहीं
है कि दुसरे धर्मो से नफरत करो, बल्कि यह है कि अपने धर्म से प्यार करो.
इतना ही काफी है. नहीं तो आज तो एक मंदिर में घंटा बजाना बंद हुआ है, कल
सभी मंदिर ऐसे ही सूने रहेंगे और गूंजेगी तो सिर्फ अज़ान.
अपने इस छोटे से त्याग पर एक दिन आपको गर्व होगा.
उठो जागो हिन्दुओं ! अब नहीं जागे तो फिर कभी मौका नहीं मिलेगा.